मुफ्तखोरी
मुफ्तखोरी
जिस कार्यालय में मैं नौकरी करता हूँ, वहाँ एक प्रकार की परिपाटी-सी बनी हुई है कि कनिष्ठ कर्मचारी ही अपने पैसों से वरिष्ठों को चाय-पानी कराते हैं. न चाहते हुए मैं भी मन-मारकर कई साल तक इस उम्मीद से परम्परा का निर्वहन करता रहा कि कभी मैं भी वरिष्ठ बनूंगा और कनिष्ठों से मुफ्त की चाय-पानी का भरपूर उपभोग करूँगा.
वर्षों बाद जब ऐसा मौका आया कि एक कनिष्ठ कर्मचारी मेरे चाय-पानी के लिए पैसे देने लगा, तो मुझे अपने पुराने दिन याद आ गए. मेरे हाथों ने स्वतः आगे बढ़कर उसे रोक दिए, “बड़े भाई के होते हुए छोटा भाई पैसे दे, अच्छा नहीं लगता ?”
कनिष्ठ कर्मचारी ने आश्चर्य से उल्टी गंगा बहते देख श्रद्धा से हाथ जोड़ दिए.
डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा, रायपुर, छत्तीसगढ़