लघुकथा – क्रिसमस का तौहफा
“हैलो”
“मम्मा आपसे एक बात करनी है…!”
“हाँ! बोलो… तुम्हारी आज छुट्टी है क्या?”
“हाँ माँ! यहाँ इस समय दस दिनों की छुट्टी होती है… आप चाची के पास ही होंगी… फोन का स्पीकर ऑन कीजिये न…!”
“फोन का स्पीकर ऑन कर दी हूँ.. बोलो क्या बोलना है…!”
“मिंटू भैया को जन्मदिन की हार्दिक बधाई कहना था माँ! लो माँ बारह बज गए 25 दिसम्बर शुरू हो गया.. और दूसरी बात थी कि आपका-पापा का चाची और मिंटू भैया का वीजा हो गया है… आप चारों एक संग हमारे पास आ रहे हैं…।”
“क्या कह रहे हो बेटा! ऐसा कैसे हो सकता…? दुनिया क्या कहेगी…? साल भी नहीं लगा तुम्हारे चाचा को गुजरे…!”
“दुनिया को कहने के लिए तो विदेश आना होगा चाची…! आप सुनने दुनिया के पास थोड़ी न फिर जा रही हैं… सदा के लिए आप दोनों हमारे संग रहेगी..। यह आपकी बहू का सुझाव और जिद है…!”
“बहू को अंदाजा भी नहीं, आग के शोलों पर चलना क्या होता है…! एक अविकसित वयस्क बेटे के साथ एक गैर चाची को अपनाना…! सोच को सादर नमन करती हूँ..!”
“चाची! गैर और अपने की परिभाषा को हम परिभाषित करने लगेंगे तो पापा और चाचा के बचपन से लेकर अबतक के इतिहास में जाकर तौलना होगा कि कब, किस मित्र का कहाँ-कहाँ पलड़ा भारी रहा होगा… अच्छा चाची एक बात बताइये… आपकी जगह मेरी माँ होती और मेरी जगह आपके बेटे-बहू के ये विचार होते तो क्या स्थिति होती?”
“पड़ोस की हर बहू सांता क्लॉज नहीं हो सकती बेटा…!”