कविता – ढलती हुई साँझ
ढलती हुई ये साँझ,
लिका छुप्पी खेलते तारे,
चाँदनी को भर,
आगोश में अपने,
चिड़ा रहा था,
चंदा भी!
ऐसी ही भीगी-भीगी
चांदनी रात में,
मिले थे हम
और मिले थे दिल,,
न जाने कितनी बार,
खामोश रातों में।
आज,
कितने दूर
मैं, तुमसे
और तुम मुझसे!
बस, कुछ बन जाने की
चाह,
भविष्य सँवारने के स्वप्न,
लिए परदेस में,
बैठा हूँ तुमसे दूर।
आधुनिकता के युग में,
भौतिक सुखों की चाह में,
आज,
कितने दूर
मैं, तुमसे
और तुम मुझसे!
बस ,
कुछ दिन और
यही सोचता हूँ,
लेकिन……….क्या सचमुच,
बस कुछ दिन और??