कविता

कविता – ढलती हुई साँझ

ढलती हुई ये साँझ,
लिका छुप्पी खेलते तारे,
चाँदनी को भर,
आगोश में अपने,
चिड़ा रहा था,
चंदा भी!

ऐसी ही भीगी-भीगी
चांदनी रात में,
मिले थे हम
और मिले थे दिल,,
न जाने कितनी बार,
खामोश रातों में।

आज,
कितने दूर
मैं, तुमसे
और तुम मुझसे!

बस, कुछ बन जाने की
चाह,
भविष्य सँवारने के स्वप्न,
लिए परदेस में,
बैठा हूँ तुमसे दूर।

आधुनिकता के युग में,
भौतिक सुखों की चाह में,
आज,
कितने दूर
मैं, तुमसे
और तुम मुझसे!

बस ,
कुछ दिन और
यही सोचता हूँ,

लेकिन……….क्या सचमुच,
बस कुछ दिन और??

हर्षा मूलचंदानी

पति - श्री कन्‍हैया मूलचंदानी स्‍थायी पता - भोपाल, मध्‍यप्रदेश मातृभाषा - सिन्‍धी लेखन - सिन्‍धी, हिन्‍दी, गुजराती नौकरी - मध्‍यप्रदेश शासन, विधि मंत्रालय, भोपाल लेखन विधा - तुकांत, अतुकांत, मुक्‍तक, नज्‍़म, गज़ल, दोहा, गीत सम्प्रति - स्वतंत्र लेखन , राष्ट्रीय पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित , राष्ट्रीय स्‍तर पर मंचो पर काव्यपाठ,सेमिनार में पेपर पढना एवं साहित्यिक कार्यशालाओं में उपस्थिति , मंच संचालन , आकाशवाणी भोपाल से प्रसारित साप्‍ताहिक सिन्‍धी कार्यक्रम में कम्‍पीयर