कहानी

कहानी – सरप्राइज

“प्रीति ! कहां हो यार , देखो क्या सरप्राइज लाया हूं तुम्हारे लिए .. खुशी से झूम उठोगी”।  प्रतीक ने घर में घुसते ही आवाज लगाई । 
   “आ रही हूं बाबा , यहीं हूं “। प्रीति ने सीढ़ियां उतरते जवाब दिया । 
   “बोलो” । 
“हम एक सप्ताह के लिए लोनावला चल रहे हैं । ये देखो ,टिकेट्स “। प्रतीक ने बोलते हुए प्रीति की कंधे से पकड़कर गोल घुमा दिया । 
   “सच ! ” प्रीति को यकीन नहीं हो रहा था। 
“हां मेरी जान! तैयारी कर लो , दो दिन का वक्त है तुम्हारे पास.. फिर ये ना कहना ये रह गया .. वो छुट गया “। बोलते हुए प्रतीक वाशरूम चला गया फ्रेश‌ होने । 
    प्रीति खुशी के मारे बावली सी डिनर की तैयारी करने रसोईघर की तरफ बढ़ गई । शादी के ५ महिने हो गए थे पर अभी तक वे कहीं हनीमून पर नहीं जा पाये थे । प्रतीक को आफिस से छुट्टी ही नहीं मिल पा रही थी । प्रीति वैसे तो कुछ कहती नहीं थी पर प्रतीक समझता था कि हर लड़की की तरह उसके भी अरमान है।  
     अगले दिन रोज़मर्रा के सारे काम निपटा कर जरूरी सामानों के लिस्ट बना प्रीति पास के मार्केट से सारी खरीदारी कर लायी , बीच-बीच में प्रतीक से फोन पर सलाह मशविरा भी करती रही । प्रतीक उसके उत्साह देखा खुद‌ भी रोमांचित होता रहा । 
    शाम होते-होते प्रीति की लगभग सारी तैयारी हो चुकी थी ।एक बार प्रतीक ओके कर दे .. सोचते हुए बेसब्री उसके आने का इन्तजार करने लगी । 
    “आज तो बहुत देर कर दी प्रतीक ने”। घड़ी से ८ बजाए तो वह परेशान हो गए। फोन‌ भी अब नहीं मिल पा रहा था। ४:३० पर आखिरी बार उससे बात हुई थी तो उसने कहा था कि वह जल्दी आ जाएगा। 
  धीरे धीरे ११ बजे फिर १:०० .. प्रीति का सब्र जवाब देने लगा। कई तरह के आशंकाएं दिमाग में उठते और वह झटक देती कि सब अच्छा है , काम से रूका होगा .. बस आता ही होगा। इसी उहापोह में  जाने कब उसकी आंख लग गई ।  
           दरवाजे के तेज घंटी से उसकी नींद खुली .. वह दरवाजे की तरफ भागी । 
“प्रतीक ” ! दरवाजे पर प्रतीक को देखते ही उससे लिपट कर वह जोर से रोने लगी । प्रीति को बांहों में समेटे हुए प्रतीक दरवाजे से अंदर आया । 
  “जान ! सुनो तो .. देखो अब आ गया हूं ना “। प्रतीक ने प्रीति को शांत कराते हुए कहा । 
“सारी रात गायब रहे .. मेरी क्या हालत होगी , सोचा है ये “? हिचकियां लेते हुए प्रीति ने शिकायत की । 
  “चलो , तैयार हो जाओ । कहीं चलना है “। प्रतीक अपनी ही रौ में बोला और फ्रेश होने चला गया। 
  पुरे रास्ते प्रीति सवाल करती रही .. कहां जा रहे हैं पर प्रतीक चुप था । अचानक गाड़ी एक हास्पिटल के सामने रूकी । प्रीति हैरान सी हास्पिटल के अंदर गई .. तभी कोरिडोर के बेंच पर बैठी उसे अपनी मां नजर आयीं । वह मां की तरफ भागी .. मां ने उसे देखते ही गले लगा लिया । 
    “बिट्टो , तुम्हारे पापा …” । मां से आगे ना बोला गया । 
“मां, क्या  हुआ है पापा को ..” । प्रीति का दिल जोर जोर से धड़क रहा था। 
  “मेजर हार्ट अटैक आया है पापा को ..  आईसीयू में है , घबराने की जरूरत नहीं । सब ठीक हो जाएगा”। प्रतीक ने प्रीति को तसल्ली देते हुए कहा। 
      अपने हनीमून के लिए ली गईं अपनी सारी छुटि्टयां प्रतीक ने अपने ससुर के देखभाल में बिताए .. खुब सेवा की जितना एक बेटा करता ।  प्रीति यह सब देख पति के अच्छाइयों के आगे नतमस्तक होती रही और  अपने किये पर शर्मिंदा होती रही । उसे वह दिन याद आ रहा था जब कुछ दिन पहले प्रतीक अपनी बीमार मां को अपने पास बुलाने के लिए कह रहा था और उसने कैसे बहाने बनाये थे । माना नई नई शादी के बाद अपना एकांत और पति का सानिध्य सबसे प्यारा लगता है .. पर मां-बाप भी तो इंसान के जीवन में अमुल्य और अतुलनीय है । आज उसे अपना व्यक्तित्व बहुत छोटा नज़र आ रहा था। 
    अगली सुबह नाश्ते के टेबल पर प्रतीक समझ तो रहा था कि प्रीति के ‌‌‌‌मन में कुछ चल रहा है , कुछ परेशान हैं पर‌ उसने कुछ कहा नहीं । वह प्रीति को टाइम देना चाह रहा था इसलिए कुछ जताये बिना रोज की तरह आफिस चला गया ।  आफिस में उसे पुरा टाइम प्रीति का उतरा चेहरा याद आता रहा । इस लिए आज वह आफिस से जल्दी निकल आया । 
     घर का दरवाजा आज ऐसे ही लगा था , कुंडी बंद नहीं थी । जैसे ही उसने ड्राइंगरुम में कदम रखा .. सुखद आश्चर्य से आंखें खुली रह गई । मां सोफे पर बैठी थी और प्रीति मां के सिर में तेल मालिश कर रही थी । 
      “आ गये “? प्रीति की नजर प्रतीक पर पड़ी । 
“मैं चाय बना लाती हूं “। कहते हुए प्रीति किचन में चली गई । 
     प्रतीक ने मां के पांव छुए और पानी लेने के बहाने अंदर किचन में आया । प्रीति को आभास हो गया कि प्रतीक उसके पीछे खड़ा है । वह पलट कर प्रतीक के गले लग गई और प्रतीक उसके माथे पर अपने होंठ रख दिए। 
“मां के पास चलो । चाय वहीं ला रही हूं “। 
  “हम्म”। प्रतीक ने कहा। 
बिना कुछ कहे दोनो के बीच सारी बातें हो गई । सारे शिकवे गिले मिट गए … और आज दोनों के मन थोड़े और करीब आ गए थे । 

— साधना सिंह

साधना सिंह

मै साधना सिंह, युपी के एक शहर गोरखपुर से हु । लिखने का शौक कॉलेज से ही था । मै किसी भी विधा से अनभिज्ञ हु बस अपने एहसास कागज पर उतार देती हु । कुछ पंक्तियो मे - छंदमुक्त हो या छंदबध मुझे क्या पता ये पंक्तिया बस एहसास है तुम्हारे होने का तुम्हे खोने का कोई एहसास जब जेहन मे संवरता है वही शब्द बन कर कागज पर निखरता है । धन्यवाद :)