लघुकथा

लघुकथा – आत्मविश्लेषण

“जब देखो तब मेरी बहू अपने मायके वालों की तरफ दौड़ी पड़ी रहती है।” बुज़ुर्ग निर्मला ने अपनी हमउम्र पड़ौसन कावेरी से कहा।
“तुमने सही कहा निर्मला, इन आजकल की बहुओं को तो अपने मायके वालों के अलावा और कुछ दिखता ही नहीं है।” कावेरी ने सहमति व्यक्त की।
“इन कुलक्षणा बहुओं की छोड़ो, अच्छा ये बताओ कि तुम अपने मायके वालों से कब से नहीं मिली हो?” कावेरी ने सहेली से पूछा।
“अच्छा मैं? मैं तो अपने मायके पिछले महीने ही गई थी। पूरे पंद्रह दिन रुकी थी। और वैसे भी मेरे भाई-बहनें, भाभियां-भतीजे आते ही रहते हैं। मेरा सबसे बड़ा लगाव है।” निर्मला ने उल्लास के साथ बताया।
“हां निर्मला, मेरी भी अपने मायके वालों में जान बसती है।”
“बिलकुल मेरी भी, कावेरी।”

प्रो शरद नारायण खरे

*प्रो. शरद नारायण खरे

प्राध्यापक व अध्यक्ष इतिहास विभाग शासकीय जे.एम.सी. महिला महाविद्यालय मंडला (म.प्र.)-481661 (मो. 9435484382 / 7049456500) ई-मेल[email protected]