इक कर्ज़
जेठ की धूप में गर्म रेत को
हाथों से फिसलता पाया हमने
तिल तिल करके जलते अरमां
यूँ ज़िन्दगी को गुज़रता पाया हमने
तन्हाई की रात और ग़म का अंधेरा
इक इक ख़्वाब अपना जलाया हमने
मौत तो सदा रूठी रूठी रही
और जीवन को जी भर मनाया हमने
ख़ुशियां थीं दूर तो ग़म में हंसकर
अपने दिल को भरमाया हमने
मौत का इक कर्ज़ था हमपे बकाया
जी कर ये कर्ज़ चुकाया हमने
— प्रियंका अग्निहोत्री ‘गीत’
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