तेरी बाहों में
रात के बारह बजने वाले थे और रसोईघर का काम खत्म होने का नाम नहीं ले रहा था । कल की तैयारी में व्यस्त थी । तभी ऐसा लगा मानों किसी ने अपनी बाहों में भर लिया हो। अररे वाह स्पर्श में कशिश भी है और कुलबुलाहट भी !
सुखद स्पर्श से अभिभूत हो शनैः शनैः आँखें बोझिल होने लगी ।बंद आँखों से ही सवाल होठों पर थिरकने लगे “कौन हो और किस अधिकार से मुझे अपनी बाहों में समेट कर कानों में कुछ कहना चाह रहे हो।”
“वाह यह भी खूब रही नये पन की चाह में कैसे तुम मुझे इतनी जल्दी भूला दोगी!”
“मैं तुम्हारा अतीत बनने वाला हूँ । क्या तुम्हें एक पल भी मुझसे बिछड़ने का अफसोस नहीं है ।क्यों इतनी उतावली हो? ठीक एक वर्ष पहले तुम इतनी ही बेसब्री से मेरी राह देख रही थी । मेरे स्वागत में सारी रात जगकर तरह-तरह की मिठाईयों एवं पकवानों की खुशबू से पूरा घर महक उठा था ।”
“हाँ हाँ मुझे सब याद है, पर जैसे मैं पिछले साल तेरे स्वागत में पलकें बिछाई थी ,उसी तरह नये का स्वागत करना चाहती हूँ।”
“ठीक है मैंने कब मना किया है पर दो घड़ी मेरे साथ भी तो चैन से बैठो। मैं जा रहा हूँ कुछ तो कहो क्या तुम मेरे साथ खुश नहीं थी?”
“बहुत खुश थी , अच्छा चलो पूजा घर में वहीं एक दीपक जलाकर दीपक की लौ में तेरे साथ बिताये लम्हों को याद करुँगी । और दिल से तुम्हें विदा करुँगी।”
“ये हुई ना बात ; अब मेरे होठों पर भी हँसी आई,वरना पूराने कलैण्डर एवं खण्डहरों को दया भरी नजरों से ही सभी देखते हैं ।”
“ना ना तुम दया के पात्र नहीं ,बल्कि खुशियों भरा सवेरा देकर जाओगे अलविदा वर्ष।”
दीप जलता रहा एक नये कल की आस में।
— आरती राय. दरभंगा, बिहार