लघुकथा – श्रेय
आज सुकेश की ममी स्नेहा का रुतबा ही कुछ और है. उनकी कविताओं की पहली किताब छपकर आई है. किताब के विमोचन समारोह में अन्य कलाकारों के साथ स्नेहा की नृत्य कला का प्रदर्शन भी देखने को मिला. स्नेहा को मानो विश्वास ही नहीं हो रहा था. वह स्मृतियों के झरोखे से उस दिन को याद करने लगी.
अन्य बच्चों की तरह सुकेश खेलने के बजाय एकांत में बैठकर गीत लिखता रहता था या बांसुरी की सुरीली धुन छेड़ता रहता था. उस दिन भी वह एकांत में बैठा अवश्य था, लेकिन उसकी लेखनी उसके हाथ में नहीं थी, नीचे गिरी हुई थी. स्नेहा ने उठाकर दी, पर सुकेश ने ली नहीं. ”अब मैं कभी गीत भी नहीं लिखूंगा और न ही बांसुरी बजाऊंगा.”
”क्या हो गया बेटा? रूठ क्यों गया है?”
”मैं तब तक आपकी बात नहीं मानूंगा, जब तक आप मेरी बात नहीं मानेंगी.”
”क्या बात नहीं मानी तेरी?” मां के स्वर में मनावन की महक थी.
”आप बहुत अच्छी कविता लिख सकती हैं, बहुत अच्छा नृत्य कर सकती हैं, पर आप सबकी इच्छाओं-आकांक्षाओं की पूर्ति करते-करते अपने लिए कुछ समय नहीं निकाल पातीं. क्या यह उचित है?”
”क्या करूं मैं, तू ही बता.” स्नेहा तनिक मानती हुई-सी लग रही थीं.
”बस आप कविताएं लिखना शुरु करो, मैं लेखनी उठा लूंगा, आप नृत्य का अभ्यास करना शुरु करो, मैं बांसुरी की मीठी धुन छेड़ दूंगा.
स्नेहा को मानना ही पड़ा. आज के भव्य आयोजन के रूप में नतीजा सामने था. बड़े-बड़े धुरंधर विद्वानों की उपस्थिति ने आयोजन को और भी भव्यता प्रदान कर दी थी.
”मेरी प्रतिभा को सामने लाने और निखारने का श्रेय बेटे सुकेश को जाता है.” स्नेहा ने अत्यंत स्नेह से सुकेश को देखते हुए समापन भाषण में कहा था.
परिवार में पारस्परिक स्नेह-प्यार-ममता-सद्भावना का ऐसा उदाहरण देखने को मिल जाए, तो परिवार के आनंद का पारावार ही नहीं होता. वहां सफलता सबके चरण चूमती है और इसका श्रेय सब एक दूसरे को देते हैं.