लघुकथा – एक और एक ग्यारह
वसुधा के मोबाइल पर बादल का मैसेज आया था. छोटा-सा बधाई-संदेश था, पर वसुधा ने उसे बार-बार पढ़ा. वह इस पर विश्वास ही नहीं कर पा रही थी. इसी क्रम में वह बादल के साथ दोस्ती होने के संयोग को याद करने में खो-सी गई.
एक समय था, जब वे एक ही स्कूल में एक ही क्लास में पढ़ते थे. हिंदी में वसुधा कक्षा में सबसे अग्रणी थी, जब कि बादल वर्तनी में मात खा जाता था. उसका शब्द भंडार भी वसुधा जितना समृद्ध नहीं था, हां कथा गढ़ने में बादल का कोई सानी नहीं था. बस इतना-सा परिचय था दोनों का आपस में, बात कभी कोई विशेष हुई नहीं थी.
कई सालों बाद एक दिन मेट्रो स्टेशन पर बादल से वसुधा की अचानक मुलाकात हुई थी. स्टेशन से बाहर निकलकर दोनों एक कॉफी हाउस में चले गए और विचारों का आदान-प्रदान हुआ. पता लगा दोनों को नौकरी की तलाश थी, पर नौकरी कौन-सी इतनी आसानी से मिलने वाली थी. बात करते-करते बादल ने वसुधा के समक्ष एक प्रस्ताव रखा- ”वसुधा, तुम तो हिंदी की महारथी हो और मैं हिंदी में पैदल, लेकिन यह तो तुम्हें पता ही है, कि कथा गढ़ने में मुझे महारत हासिल है. आओ हम मिलकर एक उपन्यास लिखने का प्रयत्न करें, शायद कुछ अच्छा हो जाए. वसुधा भी मनचाही नौकरी न मिलने से तंग आ चुकी थी. उसने प्रस्ताव को अपनी स्वीकृति दे दी. वहीं बैठे-बैठे कुछ अंश सोच लिए गए थे.
छह महीने बाद उनका उपन्यास ”जीवन के मोड़ पर——-” छपकर बाजार में आ चुका था और आते ही धूम मचा चुका था. उनका उत्साह बढ़ गया था. फिर और भी बहुत कुछ लिखा गया.
उपन्यास पर बादल का मोबाइल नंबर दिया गया था, इसलिए सभी संदेश उसीके पास आते थे. आज भी उसके मोबाइल पर उपन्यास को ‘बेस्ट बुकर अवॉर्ड’ से नवाजे जाने की सूचना आई थी, जो उसने वसुधा को फॉरवर्ड की थी.
कभी-कभी किसी का अनुकूल समय आ जाता है, तो वसुधा का बादल से मिलन हो जाता है और फिर सामने आता है संगठन की शक्ति का सुपरिणाम.