कविता

महानता

सागर कहे बूंद से
बहुत छोटी सी है तू
तुझसे नहीं मेरा कोई काम,
है विशाल आकार मेरा
अथाह है मेरी गहराई
जग में बड़ा है मेरा नाम।

कहे बूंद विशाल सागर से
सच्चाई है तुम्हारी बातों में
तुम्हारी विशालता को प्रणाम,
सोच कर देखो एक बार
गिरे ना बूंद तुम्हारे ह्रदय में
तो जग में रहेगा न तुम्हारा नाम।

मेघ कहे सिंधु से,प्यासे का
प्यास ना बुझा सके तू
जग में तेरा जन्म है विफल,
कहे सागर-समाएगा मेरे हृदय में
गिरकर बूंदों के रूप में जब
तू भी ना हो पाएगा सफल।

मानव कहे धूल से
रहती सदा पग तले
अर्थहीन है तेरा जनम,
जिस तन पर है अहंकार
एकाकार होगा मुझ में एक दिन
कहा धूल ने मानव को करके प्रणाम।

‘महानता’इसी में है
भेद करे ना छोटे बड़े का
करें ना अपने मुख से अपनी बखान,
कर्म जो मिला विधाता से
निर्वाह करें उसे तन मन से
वही ज्ञानी, जग में वहीं महान।

पूर्णतः मौलिक-ज्योत्स्ना पाॅल

*ज्योत्स्ना पाॅल

भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त , बचपन से बंगला व हिन्दी साहित्य को पढ़ने में रूचि थी । शरत चन्द्र , बंकिमचंद्र, रविन्द्र नाथ टैगोर, विमल मित्र एवं कई अन्य साहित्यकारों को पढ़ते हुए बड़ी हुई । बाद में हिन्दी के प्रति रुचि जागृत हुई तो हिंदी साहित्य में शिक्षा पूरी की । सुभद्रा कुमारी चौहान, महादेवी वर्मा, रामधारी सिंह दिनकर एवं मैथिली शरण गुप्त , मुंशी प्रेमचन्द मेरे प्रिय साहित्यकार हैं । हरिशंकर परसाई, शरत जोशी मेरे प्रिय व्यंग्यकार हैं । मैं मूलतः बंगाली हूं पर वर्तमान में भोपाल मध्यप्रदेश निवासी हूं । हृदय से हिन्दुस्तानी कहलाना पसंद है । ईमेल- [email protected]