लघुकथा – गूंज
आज गूगल पर कुछ सर्च करते हुए रामधारी सिंह दिनकर का मजेदार बाल गीत सामने आ गया-
चूहे की दिल्ली-यात्रा
इस बाल गीत ने मुझे 1967 में पहुंचा दिया, जब रामधारी सिंह दिनकर जी राजस्थान विश्वविद्यालय में आए थे. उनके आने की खबर सुनकर हम बहुत उत्साहित थे. हमने संक्षेप में उनकी जीवनी भी रट ली थी. उनसे क्या-क्या प्रश्न पूछने हैं, कौन-कौन सी कविताएं सुन ली हैं, यह भी सोच लिया था. एक बात पक्की थी, कि उनकी कविता ”हिमालय पे प्रति” अवश्य सुननी है.
महाकवि दिनकर जी आए. हमारे रीडर सरनामसिंह ‘अरुण’ जी ने संक्षेप में उनका परिचय दिया-
”रामधारी सिंह ‘दिनकर’ (23 सितंबर 1908-24 अप्रैल1974) का जन्म सिमरिया, मुंगेर, बिहार में हुआ था. उन्होंने इतिहास, दर्शनशास्त्र और राजनीति विज्ञान की पढ़ाई पटना विश्वविद्यालय से की. उन्होंने संस्कृत, बांग्ला, अंग्रेजी और उर्दू का गहन अध्ययन किया था. वह एक प्रमुख लेखक, कवि व निबन्धकार थे. उनकी अधिकतर रचनाएँ वीर रस से ओतप्रोत है. उन्हें पद्म विभूषण की उपाधि से भी अलंकृत किया गया. उनकी पुस्तक संस्कृति के चार अध्याय के लिये साहित्य अकादमी पुरस्कार तथा उर्वशी के लिये भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रदान किया गया. उनकी काव्य रचनायें : प्रण-भंग , रेणुका, हुंकार, रसवंती, द्वन्द्व गीत, कुरूक्षेत्र, धूपछाँह, सामधेनी, बापू, इतिहास के आँसू, धूप और धुआँ, मिर्च का मज़ा, रश्मिरथी, दिल्ली, नीम के पत्ते, सूरज का ब्याह, नील कुसुम, नये सुभाषित, चक्रवाल, कविश्री, सीपी और शंख, उर्वशी, परशुराम की प्रतीक्षा, कोयला और कवित्व, मृत्तितिलक, आत्मा की आँखें, हारे को हरिनाम, भगवान के डाकिए.”
उसके बाद महाकवि ने परशुराम की प्रतीक्षा के अतिरिक्त बहुत-सी कविताएं सुनाईं, जिसमें जोश की प्रमुखता था. अंत में हमारी तरफ से ”हिमालय के प्रति” कविता की फरमाइश हुई. महाकवि ने इशारे से सबको शांत करवाया, फिर इशारे से अपने सामने से माइक हटवाया. फिर जो उन्होंने कविता पाठ किया, मानो हिमालय स्वयं हुंकार भर रहा है-
मेरे नगपति! मेरे विशाल
साकार, दिव्य, गौरव विराट,
पौरुष के पूंजीभूत ज्वाल !
मेरी जननी के हिम-किरीट !
मेरे भारत के दिव्य भाल !
मेरे नगपति ! मेरे विशाल !
विश्वविद्यालय के इतने बड़े सभागार में बिना माइक के शेर की तरह ”मेरे नगपति! मेरे विशाल” के गूंज आज भी कानों में गूंज रही है.
महाकवि रामधारी सिंह दिनकर का मजेदार बाल गीत
चूहे की दिल्ली-यात्रा
चूहे ने यह कहा कि चुहिया! छाता और घड़ी दो,
लाया था जो बड़े सेठ के घर से, वह पगड़ी दो।
मटर-मूँग जो कुछ घर में है, वही सभी मिल खाना,
खबरदार, तुम लोग कभी बिल से बाहर मत आना!
बिल्ली एक बड़ी पाजी है रहती घात लगाए,
जाने वह कब किसे दबोचे, किसको चट कर जाए।
सो जाना सब लोग लगाकर दरवाजे में किल्ली,
आज़ादी का जश्न देखने मैं जाता हूँ दिल्ली।
चूँ-चूँ-चूँ, चूँ-चूँ-चूँ, चूँ-चूँ-चूँ,