गज़ल
कभी बना के हँसी होंठों पे सजाऊँ उसे
कभी अश्कों की सूरत आँख से बहाऊँ उसे
कभी पढूँ उसे पाकीज़ा आयतों की तरह
कभी गज़ल की मानिंद गुनगुनाऊँ उसे
वो कहता है कि न किया करो याद मुझे
जो दिल में बसा हो किस तरह भुलाऊँ उसे
असल ज़िंदगी में जो मिल नहीं सकता
मैं रोज़ ख्वाब में अपने गले लगाऊँ उसे
न नींद आती है न आता है पैगाम उसका
कैसे कटती है शब-ए-हिज्र क्या बताऊँ उसे
आभार सहित :- भरत मल्होत्रा।
बहुत खूबसूरत ग़ज़ल