ग़ज़ल- प्यार बदलियों में है
कंठ तक भरा हुआ यूँ प्यार बदलियों में है।
क्यों न इतराये भला जब चाँद सुर्ख़ियों में है।
एक बार आज़ाद हो के इनकी तरह उड़ चलो,
दो जहां के रंग बिखरे देखो तितलियों में हैं।
बढ़ती हुई उम्र बस लायी है जिम्मेदारियां,
ज़िन्दगी जो है कहीं बच्चों की मर्ज़ियों में है।
मासूमियत का भी असर इन पर कभी होता नहीं,
जाने इतना क्यों ज़हर फैला इन वहशियों में है।
इस छोर से उधड़ी कभी ये ज़िन्दगी उस छोर से,
पक्का सिले ऐसा क्या हुनर कोई दर्ज़ियों में है।
सुबह से क्यों आज लहरें सो रही हैं तान के,
आज जाने क्यों समंदर सिमटा सीपियों में है।