राष्ट्र-साधना का बीजमंत्र: वंदेमातरम्
म0प्र0 के सरकारी कार्यालयों में प्रत्येक महीने की पहली तारीख को पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल गौर के समय से चल रहीे वंदेमातरम के सामूहिक गायन की परम्परा को नई सरकार द्वारा रोक देने की घटना को पूरे देश में अल्पसंख्यक तुष्टीकरण के रूप में देखा जा रहा है। आमजन के साथ ही राजनीतिक दलों, खासकर भाजपा ने इस कृत्य को विभाजनकारी मानसिकता बताते हुए मुखर विरोध किया है और अपने विधायकों एवं कार्यकर्ताओं के साथ सचिवालय के सामने वल्लभ मैदान में गायन किया। जबकि नाथ सरकार का कहना है कि गायन पर रोक नहीं लगाई गई बल्कि निलंबित किया गया है ताकि नए स्वरूप में प्रस्तुत किया जायेगा। तो अब यह समझना जरूरी हो गया है कि इस गीत में आखिर क्या है जो एक वर्ग विशेष के विरोध का कारण बनता रहा है और कुछ राजनीतिक दल इस मुद्दे पर उनके साथ जुड़ जाते हैं। क्यों संसद और विधानसभाओं में वंदेमातरम का वहिष्कार किया जाता है। क्या ऐसा नहीं लगता कि वोटबैंक की राजनीति से उबर कर सभी दल राष्ट्रहित के पथ का अनुसरण करते हुए देश एकता और अखंडता के लिए समान रूप से काम करें।
जब हम वंदेमातरम् गीत की रचना की पृष्ठभूमि, इतिहास और स्वतंत्रता आंदोलन में उसकी महती भूमिका को देखते हैं तो स्पष्ट होता है कि वंदेमातरम् न केवल नारा है न गीतांश और न है कोरे शब्दों का समुच्चय। इन शब्दों में भरी है असीम ऊर्जा, गति, प्रवाह, अमरत्व, राष्ट्रलय, आनन्द बल्कि महाआनन्द, महाराग। इन शब्दों ने हजारों-हजार युवकों को समाज और देश के लिए सर्वस्व अर्पण करने की प्रेरणा दी, शक्ति दी और सम्बल भी। वंदेमातरम् केवल गीत नहीं है बल्कि भारत माता की वंदना को समर्पित राष्ट्र का समवेत अग्निस्वर है, एक ऋचा है, एक पुण्यश्लोक है। संस्कृत और बंग्ला की मिलीजुली भाषा में रचित इस राष्ट्रीय गीत में नारी शक्ति के उदात्त चरित्र की अर्चना एवं श्लाधा की गई है। सदानीरा सरिताओं के जल से सिंचित, उवर्र कर्मभूमि में खड़े पुष्प और फलों से लदे हरे-भरे वृृक्ष, शीतल मलय समीर के झोंकों से हिलडुल कर मां की वंदना कर रहे हैं। रिपुदल का मानमर्दन करने वाली अतिबला मां ही हमारा हृदय है, विद्या और धर्म है। वही प्राण है, वही शक्ति और भक्ति है। मां की प्रतिमा ही गांव-गांव में वस्तुतः हम सभी के हृदय में विराजमान और सुशोभित है। ऐसी दुर्गास्वरूपा तेजोदीप्त मातृभूमि को सादर वंदन है, नमन है।
‘वंदेमातरम्’ गीत ऋषि वंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय द्वारा 1882 में लिखित कालजयी औचन्यासिक कृति ‘आनन्दमठ’, जिसमें उनके प्रखर राष्ट्रप्रेम का उन्मेष हुआ है, का एक अंग है। वंदेमातरम् गीत ने वर्ग, पंथ, धर्म और जातीय स्वार्थ के दल-दल में फंसे खंडित क्षेत्रीय समाज को मानवीय दुर्बलताओं से उबार कर राष्ट्रीय एकता के सूत्र में पिरोकर भारतमाता की स्वतंत्रता के लिए कंधे से कंधा, हृदय से हृदय, कदम से कदम मिलाकर अत्याचारी ब्रिटिश शासन सत्ता के विरुद्ध लड़ने-मरने की प्रेरणा दी। यह गीत आजादी के दीवानोें का कंठहार बन अंग्रेजी सत्ता के विरुद्ध युद्ध का शंखनाद था। वास्तविकता तो यह है कि यह केवल गीत नहीं वरन् राष्ट्रीय साधना का बीजमंत्र है, क्रान्तिकारियों का प्रेरणास्रोत और पथप्रदर्शक है। वंदेमातरम गीत की रचना 26 अक्टूबर 1875 कार्तिक शुक्ल नवमी की पुनीत संध्या में स्वतंत्र रूप से हुई थी जिसे बाद में क्रान्तिधर्मा उपन्यास ‘आनन्दमठ’ में सम्मिलित कर लिया गया था। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के 1886 में कलकत्ता में सम्पन्न दूसरे अधिवेशन में हेमचन्द्र बंदोपाध्याय ने प्रथम बार वंदेमातरम् गीत के कुछ पद गाये थे, जबकि 1896 के कलकत्ता अधिवेशन में रवीन्द्रनाथ टैगोर ने पूरा गीत गाया। 1901 के बाद कांग्रेस के प्रत्येक अधिवेशन में यह गीत गाया जाने लगा। लेकिन 1906 में मुस्लिम लीग की स्थापना के समय से ही इसका विरोध शुरु हो गया। 1923 में कांग्रेस के काकीनाड़ा अधिवेशन के अध्यक्ष मौलाना मुहम्मद अली ने वंदेमातरम् गायन का विरोध करते हुए कहा कि यह गीत इस्लाम विरुद्ध है, अतः नहीं गाया जायेगा।
वंदेमातरम् गीत देशभक्तों की सांसों में रच बस गया। इस गीत के पीछे सारा देश पागल हो उठा। 1905 में गवर्नर लार्ड कर्जन द्वारा बंग-भंग की घोषणा के विरोध में 16 अक्टूबर 1905 के दिन उमड़े जन आंदोलन में इस गीत ने प्राण फूंक दिए। विरोध की यह आंधी रुकी नहीं, थमी नहीं बल्कि तीव्र वेग से बढ़ती ही गई। अंततः अंग्रेज सरकार को घुटने टेकने पड़े और बंग-भंग का निर्णय रद्द हो गया। यह जीत वंदेमातरम् की थी। इतिहास प्रसिद्ध बंगाल की ‘अनुशीलन समिति’ नामक क्रान्तिकारी संगठन में सम्मिलित होने वाले प्रत्येक युवक को ‘ओम वंदेमातरम्’ की शपथ लेनी पड़ती थी। गणेश दामोदर सावरकर की संस्था ‘अभिनव भारत’’ की बैठकों में वंदेमातरम् का जयघोष एक अनिवार्य हिस्सा होता था। 17 जनवरी 1883 को अदन की जेल में जब वासुदेव बलवंत फड़के को फांसी पर चढ़ाया गया तो वंदेमातरम् के घोष से कारागार की दीवारें प्रतिध्वनित होती रहीं। कलकत्ता के जिला जज किंग्सफोर्ड पर बम फेंकने का आरोपी किशोर नायक खुदीराम बोस 11 अगस्त 1908 वंदेमातरम् का घोष करता हुआ फांसी पर चढ़ गया। कर्जन वायली को 1जुलाई 1919 को मौत की नींद सुलाने वाले मां भारती के तपःपूत मदनलाल ढींगरा को जब 17 अगस्त 1909 को पैंटोन विले जेल में फांसी पर लटकाया गया तो उनके मुख से भी वंदेमातरम् गीत का ही स्फुरण हो रहा था। गणेश दामोदर सावरकर के ‘लघु अभिनव भारत मेला’ नामक कविता संग्रह को अंग्रेजी शासन के विरुद्ध विद्रोह और युद्ध छेड़ने वाला मानकर उनको काले पानी की सजा देने वाले जज जैक्सन को 21 दिसम्बर 1909 को मौत की नींद सुलाने वाले भारते मां के वीर पुत्रों अनन्त लक्ष्मण कन्हेरे, विनायकराव देशपांडे और कृष्णगोपाल कर्वे ने भी 19 अप्रैल 1910 को वंदेमातरम् गाते हुए फांसी के फंदे को पुष्पहार समझ स्वयं ही कंठ में धारण कर मां भारती के चरणों में अपने प्राण न्योछावर कर दिए। दो आजीवन कारावास की सजा प्राप्त वीर विनायक दामोदर सावरकर अंडमान के कैदियों को वंदेमातरम् गीत गाकर उत्साह भरते रहे। मैडम भीकाजी कामा ने पेरिस में 10 सितम्बर 1909 को राष्ट्रीय विचार धारा का एक समाचार पत्र निकाला तो उसका नाम वंदेमातरम ही रखा। 14 अगस्त 1947 की मध्य रात्रि में जब देश ने स्वतंत्रता के पथ पर पहला कदम रखा तो श्रीमती सुचेता कृपलानी ने वंदेमातरम का गायन किया और उपस्थित लन समुदाय सम्मान में खड़ा रहा। वहीं 15 अगस्त की पहली सुबह को रेडियो पर पं0 ओंकारनाथ ठाकुर ने इस गीत का गायन किया।
वंदेमातरम् गीत ने समस्त देशवासियों को आजादी की बलिवेदी पर सर्वस्व अर्पित करने के लिए अनुप्राणित और अनुप्रेरित किया। वंदेमातरम् जन साधारण में आम अभिवादन का माध्यम बन गया। उसके उच्चारण पर अंग्रेजी शासन ने प्रतिबंध लगा दिया। वंदेमातरम् के उच्चारण पर बेंत से पीट-पीटकर लहूलुुहान कर दिया जाता था, लेकिन यह गीत न तो बंद हो सका न दब सका। यत्र तत्र सर्वत्र वंदेमातरम् की गूंज सुनाई देती और देश में ऊर्जा-उत्साह का संचार करती रही। बीबीसी लंदन ने अपनी 70वीं वर्षगांठ पर 20वीं सदी के सर्वाधिक लोकप्रिय गीतों पर सर्वेक्षण किया जिसमें 153 देशों के चयनित डेढ़ लाख लोंगों ने मतदान में हिस्सा लिया और वंदेमातरम् गीत को गत सदी के लोकप्रिय गीतांे में दूसरा स्थान मिला। 24 जनवरी 1950 को लोकसभा के अधिवेशन में प्रार्थना गीत के रूप में स्वीकार किया गया। विश्वनाथ मुखर्जी ने अपनी पुस्तक ‘वंदेमातरम् का इतिहास’ में लिखा है कि जिस गीत के कारण सदियों से सुप्त देश जाग उठा, बंग-भंग आन्दोलन के समय जो गीत धरती से आकश तक गूंज उठा, बंगाल की खाड़ी से जिसकी लहरें इंगलिश चैनल पारकर ब्रिटिश पार्लियामेंट तक पहुंच गईं, जिस गीत के कारण बंगाल का बंटवारा ना हो सका, उसी गीत को अल्पसंख्यकों की तुष्टि के लिए खंडित किया गया। जो गीत गंगा की तरह पवित्र, स्फटिक की तरह निर्मल और देवी की तरह प्रणम्य है, उसी गीत को स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद दूध की मक्खी की तरह निकाल दिया गया। भारतीय राजनीति का यह निर्मम परिहास कैसा है, इसका निर्णय भारत के भावी वंशधर करेंगे।
प्रमोद दीक्षित मलय