लघुकथा – मेकअप
”हे भगवान, यह कितना भयानक सपना था!” तड़के-तड़के झुनकू घबराकर उठ गया था.
”ऐसा क्या देख लिया जी आपने?” झुनकू की झुनकी ने जानना चाहा.
”अरी भागवान, रोज सुबह मेकअप करके कटोरा उठाकर भीख मांगने चला जाता हूं और लोग दया कर भीख दे भी देते हैं, परिवार का खर्चा चल जाता है, आज के सपने ने सब मटियामेट कर दिया.” बोलने में झुनकू की खुनस साफ झलकती थी.
”अब बताओगे भी!” झुनकी की खुनस कौन कम थी!
”अब तक तो मैं खुद ही अपना मेकअप कर लेता था, लेकिन सपने में भगवान ने मेरा मेकअप कर दिया था.”
”ये लो, यह भी कोई खुनस की बात हैं! तुम्हारा मेकअप का टेम भी बच गया.” झुनकी मजे लेती हुई बोली.
”अरे वो मेकअप ऐसा नहीं था, कि भीख मिल जाए. एक तो मेरी दोनों बांहें कट गई थीं, ऊपर से लोगों के ताने- ”कमाकर खाओ. कब तक मुफ़्त की रोटियां तोड़ोगे? जानती हो! मैं क्या काम कर रहा था?”
”मैं क्या जानूं? हां बांहें कटना तो बहुत बुरा हुआ. हां, तो आप क्या कर रहे थे?”
”बाकी मजदूर तो सिर पर ही 24 ईंटें उठाकर ले जा सकते थे, मैं कुछ ईंटें दोनों कटी बांहों पर टंगे थैलों में और बाकी सिर पर ढोकर ले जाता था.”
”तब तो तुम्हें बहुत तकलीफ हुई होगी न!” झुनकी उसके मन को सहलाने लगी.
”झुनकी, सच पूछो तो ऐसी मजूरी के बाद जो आत्मसंतुष्टि मिलती थी, उसका मजा ही कुछ अलग था.” आत्मसंतुष्टि के भाव ने झुनकू के चेहरे पर रौनक ला दी थी.
तभी झुनकी मेकअप का सामान ले आई थी.
झुनकू ने उसे सामान वापिस ले जाने का इशारा करते हुए कहा- ”पहली बार आंख खुली है, अब मेकअप की जरूरत नहीं है. अब मेहनत की खाएंगे, भीख की नहीं. अमोलक मानुष देही में तनिक आत्मसंतुष्टि का अनुभव भी कर लूं.”
वह मजूरों के ठिए के लिए चल पड़ा था.
कभी-कभी एक सपना भी मनुष्य को झिंझोड़कर उसकी आत्मा तक को जगा देता है, वही सपना उसे अमोलक मानुष देही में तनिक आत्मसंतुष्टि का अनुभव करने को तत्पर कर देता है.