कविता

कविता – किताबें

किताबें सबसे प्रिय मित्र ,संगी- साथी और मार्गदर्शक होते थे उन दिनों ।

बचपन में लोरी बन कर हमें हंसाते थे , गुदगुदाते थे , बहलाते थे , सुलाते थे ।

जवानी में लिपटकर सीने से
कल के सपने सजाते थे
रूमानी ख़्वाब दिखाते थे तो कभी डाकिया बन जाते थे ।

बुढ़ापे के अकेलेपन में
गीता के श्लोक सुनाते थे, जीने की राह दिखाते थे , ईश्वर से मिलाते थे ।

पर आजकल डिजिटल संसार में
सबसे कोने वाली सेल्फ में
सजी रहती है किताबें
आते जाते सबको तकती रहती है किताबें
ज़रा ग़ौर से सुनो तो
कितना कुछ कहती रहती है किताबें ।

-©️—–साधना सिंह

साधना सिंह

मै साधना सिंह, युपी के एक शहर गोरखपुर से हु । लिखने का शौक कॉलेज से ही था । मै किसी भी विधा से अनभिज्ञ हु बस अपने एहसास कागज पर उतार देती हु । कुछ पंक्तियो मे - छंदमुक्त हो या छंदबध मुझे क्या पता ये पंक्तिया बस एहसास है तुम्हारे होने का तुम्हे खोने का कोई एहसास जब जेहन मे संवरता है वही शब्द बन कर कागज पर निखरता है । धन्यवाद :)