ग़ज़ल
अँधेरी’ रात में’ रब एक माहताब तो’ दे
मे’रे सनम के’ दिले बाग के गुलाब तो’ दे |
चलो कहीं को’ई’ मुझको कभी खिताब तो’ दे
न चाहिए मुझे’ अब दोस्त, इक रकीब तो’ दे |
तड़प तड़प के’ सदा जीना’ भी मज़ा कुछ और
ये’ मान कर मुझे’ आकुल इजतिराब तो’ दे |
मेरी प्रिया बता’ तू, क्यों गयी हो’ छोड़ मुझे
सबाह नींद में’ आकर हसीन ख़्वाब तो’ दे |
किया वही जो’ कहा तू ने’ मुझको’,मेरे’ सनम
तू’ मान ले कहा’, आकर शबाब आब तो’ दे|
यूँ’ मुँह न मोड़ कभी, बेबफाई’ अब न करे
रकीक़ हर्फ़ में’ मुझको सही जवाब तो’ दे |
ये’ जिंदगी की’ सभी दौड़ पूरा’ कर आया
थका हुआ अभी’, तू हाथ पैर दाब तो’ दे |
खफ़ा बहुत है’ मे’री जान, जानता हूँ’ मैं
तमाम जुल्म किया मैं ने’ वो हिसाब तो’ दे |
पढ़ी है’ नज़्म सभी एक एक वर्ण को’ भी
रहा फ़साना’ ते’रे दिल की’, वो किताब तो’ दे |
नशा नहीं अभी’ सब कुछ उतर गया ‘काली’
प्रणय में’ तेरे’ मैं’ झूमूँ ज़रा शराब तो” दे |
रकीक़=कोमल, स्पष्ट
कालीपद ‘प्रसाद’