भागती है ज़िन्दगी
रात भर पहियों पे सरपट भागती है ज़िन्दगी।
अगली सुबह दिन चढे फिर जागती है ज़िन्दगी।।
दर्द की एक रात लम्बी लगती ज़िन्दगी से भी,
हँसती रहे गर तो बस एक रात सी है ज़िन्दगी।
जिस्म के निशां हसीं लिबास से फिर ढक रही,
टाट पे मखमल रोज़ ही टांकती है ज़िन्दगी।
बेड़ियाँ मजबूत सौ तालों में कैद है मगर,
बन्द खिड़की से आसमां ताकती है ज़िन्दगी।
सारी ज़मीन है मेरी ये सारा आसमान भी,
फुटपाथ पे खुद को कुछ ऐसे आंकती है ज़िन्दगी।
दौड़ भाग और मशक्कत करती रही उम्र भर,
चंद कदमों में ही वही अब हांफती है ज़िन्दगी।
थालियां भर भर के फेंकने से पहले जान लो,
कूड़े के ढेर से निवाला छांटती है ज़िन्दगी।
ईंट गारे के महल में किसको किसकी फिक्र है,
एड़ियां रगड़ के वक्त काटती है ज़िन्दगी।
आलम बेबसी का ‘लहर’ किस तरह से बूझिये,
कितना बचा अब सफर जब नापती है ज़िन्दगी।