लौ
प्रकृति के अंतर्मन से उदीयमान हो रही थी
कुछ संवेदनाएं जेहन में प्रदीप्त हो रही थीं ।
शांत था अलाव फिर क्यों वो उबल रही थी
कहीं कुछ टूट गया गुनगुनाहट हो रही थी ।
अंजाम की परवाह न बाजीगर को थी ,
न अंदाज के बिखरने की शिकायत थी ।
फिसल रहा था कारवां जमीन की मुट्ठी से ,
आसमान से जैसे घटाएं गरज रही थी ।
सुगबुगाहट से अतृप्त थी पूर्णिमा की रात
मगन हो कर चमक रही थी तारों की बारात
खिलखिलाहट से मगरूर था जैसे चन्द्रमा ,
आँसुओं की घटा फिर भी बरस रही थी ।
देह के साथ ही टूट गए थे रिश्ते दिलों के ,
खामोश फिजाओं में दिल की आवाज से।
मतबाला मन गरज रहा था झूठी शान में
जाने क्यों दूर से लौ कहीं चमक रही थी ।
वर्षा वार्ष्णेय अलीगढ़