लघुकथा – जद्दोजहद
“दी! दीदी! सामने देखिए वह वही हैं न , जिन्हें समाज की दुनिया में लाने के लिए हम इनके आशियाने तक गए थे… समाजिक मुद्दों में कभी आना होता था तो पहले अपने घर वालों से आपसे फोन पर बात करवाती थीं , घर वाले सुनिश्चित हो पाते थे तब गोष्ठियों में आ पाती थीं…!”
“अरे कहाँ? ना! ना! कोई दूसरी होगी.. तुम्हें कोई गलतफहमी हो रही हैं!”
“बिलकुल नहीं। मुझे कोई गलतफहमी नहीं हो रही है.., गहन रात्र और थोड़ा अंधेरा होने से आपको ठीक से पहचान में नहीं आ रही होगी..!”
“नहीं ना रे! ना दूरी है और ना अंधेरा… चकाचौंध पैदा करने वाली चेहरे की सजावट और ग्लैमरस पोशाक से धोखा खाने की इच्छा हो रही है… समीप जाकर पूछ लूँ राजनीत गलियारे में आने वाली दो परती चेहरे का राज… इतनी ऊँची उड़ान भरी कैसे…!”