खून उबलता है
लावा जैसे ग़र ये दर्द पिघलता है
पलकों से कब इतना बोझ सँभलता है
तब-तब सब्र टूटने पर मजबूर हुआ
जब-जब पानी सर के पार निकलता है
सर्दी गर्मी बारिश लाख सितम कर लें
मौसम है मौसम यक रोज बदलता है
ख़ुद्दारी पर कोई चोट अगर मारे
कुछ भी कह लो लेकिन खून उबलता है
-प्रवीण ‘प्रसून’