लघुकथा – Undo का बटन
बहुत मिन्नतें करने पर हम कुछ दिन रहने के लिए चंपा के पास आए थे. चंपा की भानजी मिन्नी भी अपनी इंटर्नशिप करने के लिए उनके पास रह रही थी. चंपा, उसके पतिदेव और मिन्नी तो सुबह होते ही नहा-धोकर चलते-फिरते नाश्ता लेकर काम पर निकल जाते थे, अपने घर की तरह हम दोनों ही पीछे अकेले रह जाते थे. रात को सब डिनर पर ही हम सब एक साथ मिल पाते थे. वह समय मौज-मजे का होता था.
एक दिन सबकी फरमाइश पर मैंने सुबह नाश्ते पर हलवा बनाया था. सब खूब मजे से खाकर गए थे. थोड़ा हलवा बचा हुआ था. डिनर खत्म होते ही मैंने कहा- ”स्वीट डिश पर थोड़-थोड़ा हलवा हो जाए?”
सबका मूड देखते हुए मैं हलवा गरम करने के लिए उठने लगी, तो झट से मिन्नी उठ खड़ी हुई- ”आंटी जी, मैं गरम कर लाती हूं.”
मिन्नी गई तो सही, पर 2-3 बार क्लिक करने पर भी उससे माइक्रोवेव ही स्टार्ट नहीं हो रहा था. मैं सामने बैठी देख रही थी, समझ गई कि क्या हो रहा है- ”पहले Undo के बटन को क्लिक करो.” उसने ऐसा ही किया और माइक्रोवेव तुरंत स्टार्ट हो गया.
”टिप देने के लिए थैंक्यू आंटी जी.” बड़े प्रेम से कहकर मिनी हलवा गरम कर लाई.
माइक्रोवेव ने तो Undo के बटन से सही काम किया, लेकिन मेरे मन में विचारों की तरंगें उथल-पुथल करने लग गईं. क्या एक Undo का बटन इंसान के अंदर फिट नहीं हो सकता! कम-से-कम मुझे तो इसकी सख्त जरूरत थी. नहीं तो मुझे 30 साल पहले की मिन्नी की ममी की बात आज भी इतना क्यों परेशान करती?
देखा जाए तो मिन्नी की ममी ने वही तो कहा था जो हर युवा होती बेटी की मां को सुनना पड़ता है- ”भाभी जी, बिटिया को खाना बनाना सिखा दीजिए, कल को उसे ससुराल जाना होगा, काम आएगा.”
मेरे पास दो विकल्प थे. या तो उस समय जवाब दे देती-
”मैं तो दिन में एक बजे घर आ जाती हूं, बिटिया सुबह आठ बजे घर से निकलकर रात को आठ बजे ऑफिस से आती है, वह थकी-हारी आए और खाना बनाए, तब हम खाएं?” या फिर उनकी बात को आया-गया कर देती.
पहले विकल्प का मैंने उपयोग नहीं किया, दूसरे विकल्प के लिए Undo के बटन की जरूरत थी, जो मेरे पास नहीं था.
इंसान में Undo के बटन का होना बहुत जरूरी है, अन्यथा वह किसी की आलोचना या कटु बातों को नहीं भुला पाता और वही कसक उसके सीने को चाक कर देती है, उसे खुश नहीं रहने देती. वह किसी-न-किसी बात में उलझा ही रहता है.