ग़ज़ल
बिना बात ही डर गए क्यूं?
टूट गए, बिखर गए क्यूं?
मंज़िल तक तो पंहुच जाते,
रस्ते- रस्ते ठहर गऐ क्यूं?
सज़ा मिले बच्चों को ऐसा,
ज़ुर्म जहां में कर गए क्यूं?
ज़िंदा रहते हिम्मत थी तो,
जीते- जीते मर गए क्यूं?
कुछ काम तो अच्छे करते,
घड़े पाप के भर गऐ क्यूं?
‘जय’ ने भी तो न पहचाना,
नाहक उसके घर गए क्यूं?
-- जयकृष्ण चांडक 'जय'