विद्यालय में अभिव्यक्ति के मायने
जनवरी 2015 की एक सुबह, सूरज अपनी आग को शनैः-शनैः धधकाने कोशिश में था। सूरज का ताप ओढ़े हुए मैं अपनी बीआरसी नरैनी अन्तर्गत पू0मा0वि0 बरेहण्डा गया। प्रार्थना सत्र पूरा हो चुका था और बच्चे कमरों में बैठें या बाहर, शिक्षक और बच्चे यह तय कर रहे थे। यहां पहले भी जाना होता रहा है तो बच्चे खूब परिचित थे। पहुँचते ही बच्चों ने घेर लिया। सबकी चाह थी कि पहले मैं उनकी कक्षा में चलूँ। कोई हाथ पकडे था तो कोई बैग। मैंने सभी कक्षाओं में आने की बात कही लेकिन असल लड़ाई तो बसु यही थी कि मैं पहले किनकी कक्षा में चलूँगा। खैर, मेरी काफी मान-मनौव्वल के बाद कक्षा 8 से मेरी यात्रा प्रारम्भ हुई। बाहर धूप में ही बच्चे बैठे थे। बातचीत शुरु ही हुई थी कि कक्षा 7 के बच्चे भी वहीं आ डटे। त्योहार और शीत लहर के कारण लगभग एक पखवारे की लम्बी छुट्टियों के बाद हम लोग मिल रहे थे। पिछले एक-डेढ़ महीने के अपने अनुभव बच्चों ने साझा किए। परस्पर खेले गये विभिन्न प्रकार के खेलों की चर्चा, घर में बने पकवानों की चर्चा, खेत-खलिहान की बातें, मकर संक्रान्ति पर पड़ोस के गाँव ‘बल्लान’ में लगने वाले ‘चम्भू बाबा का मेला‘ की खटमिट्ठी बातें। गुड़ की जलेबी, नमकीन और मीठे सेव, गन्ना (ऊख), झूला मे झूलने की साहस और डर भरी बातों के साथ साथ नाते-रिश्तेदारों की बातें, दादी और नानी की किस्सा-कहानी की बातें, गोरसी में कण्डे की आग में मीठी शकरकन्द भूनकर खाने की स्वाद भरी बातें और न जाने क्या क्या, हां, थोडा बहुत पढ़ने की बातें भी। बातें पूरी हो चुकने के बाद (हालांकि बच्चों की बातें कभी पूरी होती नहीं) ‘‘चकमक‘‘ के दिसम्बर अंक में विद्यालय के कक्षा 8 के बच्चों के छपे गुब्बारे वाले प्रयोग पर विचार-विमर्श हुआ। आगामी मार्च अंक के ज्यामितीय प्रयोग पर अभ्यास हुआ। ‘‘खोजें और जानें‘‘ के पिछले अंक में कवर पर छपे यहाँ की ‘बाल संसद‘ के चित्र पर भी बच्चों ने अपने और अपने माता पिता के अनुभव बताये। स्कूल की दीवार पत्रिका के आगामी अंक के कलेवर पर संपादक मण्डल के साथ बातें करके मुद्दे तय हुए। यह भी निर्णय हुआ कि अब हर अंक पर एक साक्षात्कार अवश्य छापा जायेगा। मनोज और केशकली मिलकर अपने गांव के मिट्टी के बर्तन बनाने वाले का साक्षात्कार लेंगे। साक्षात्कार क्या है और क्यों? साक्षात्कार कैसे लें, क्या और कैसे बातें करें किन मुद्दों पर किस-किस तरह से प्रश्न किया जा सकता है। मिल रहे उत्तर से प्रश्न कैसे पकड़ें आदि बिन्दुओं पर थोड़ी बातें हुईं। थोड़ी ही देर में वे दोनों बच्चे 10-12 प्रश्नों की एक प्रश्नावली तैयार कर लाये। वास्तव में प्रश्न चुटीले थे और उनसे कुम्हारगीरी का पूरा चित्र उभरने वाला था। मुझे बेहद खुशी हुई। कौन कहता कि सरकारी विद्यालयों में प्रतिभाएं नहीं है, कोई सोच नही है। उन्हें ऐसे बच्चों से मिलना चाहिए। अभ्यास के तौर पर कक्षा में ही दोनों बच्चों ने मेरा साक्षात्कार लिया।
थोडी ही दूर पर कक्षा 6 के बच्चे बैठे थे। वे मुझे देख रहे थे कि मैं कब उनकी कक्षा में पहुंचू। तो 7 और 8 के बच्चों से बातें कर मैं कक्षा 6 में गया। बच्चों ने जाते ही शिकायत की कि स्कूल की दीवार पत्रिका में हमारी कक्षा के बच्चों की रचनाएं नहीं छापी जाती हैं। उनकी नजर में हमारी कहानी, कविता, लेख और समाचार ठीक नहीं हंै। मैं उनकी बातें देख-सुनकर हंस भी रहा था और सोच भी रहा था कि बड़े बच्चों द्वारा इस प्रकार का व्यवहार ठीक नहीं है। थोड़ी देर में बच्चों ने अपना निर्णय सुना दिया कि वे अब अपनी दीवार पत्रिका अलग से निकालेंगे। मैनेे उनसे पत्रिका बनाने की प्रक्रिया को जानना चाहा तो उन सबने विस्तार से न केवल चर्चा की बल्कि संपादन टीम भी बना डाली। संपादक- कोमल, सह संपादक- राकेश, कला संपादक- शिवदेवी, समाचार संपादक- दिनेश और प्रबन्ध संपादक- पंकज। पत्रिका के नाम पर चर्चा हुई। वे मुझसे कोई अच्छा-सा नाम चाह रहे थे। मैने कहा कि वे अपनी दीवार पत्रिका का नाम स्वयं तय करें। उमंग, तरंग, बाल-बगीचा, फुलवारी, अमराई, सबेरा जैसे नाम आये लेकिन बात बन नहीं रही थी। हर नाम पर बस हाँ, हूूँ चल रहा था। तभी मंजू ने सुझाया कि इन्द्रधनुष कैसा रहेगा। सभी बच्चे एक साथ बोल पड़े, हाँ, यह ठीक है। तो कक्षा- 6 की दीवार पत्रिका का नाम हुआ – ‘‘इन्द्रधनुष‘‘। उनकी अपनी सामग्री भी लगभग तैयार थी जिसमें कहानी, कविता, पेड़ पर लेख, चुटकुले, गाँव के समाचार, स्कूल की गतिविधियाँ आदि लेकर विद्यालय के प्रांगण में ‘इन्द्रधनुष’ को उतारने में बच्चे जुट गये। बच्चों के जिद भरे आग्रह पर एक सप्ताह बाद ‘इन्द्रधनुष’ के लोकार्पण में शामिल हुआ। बाल अखबार ‘इन्द्रधनुष’ की मनोहारी छटा ने चित्त चुरा लिया जिसमें रचनाओं के रंग भरे थे अंजलि, सुनैना, युवराज, राकेश, आशा, वर्षा, पंकज, शिवदेवी ने। कोमल ने लिखा था एक धारदार संपादकीय कि क्यों जरूरत पड़ी अपनी अलग पत्रिका निकालने की। मैं खुश था कि बच्चों में जिस भाषायी विकास, लोकतांत्रिक समझ और मानवीय मूल्यों के निर्माण के लिए मैंने बाल अखबार बनाने की शुरुआत की थी उसे भावना के मर्म का सूत्र बच्चों ने पकड़ लिया था। बच्चों में कल्पना, चिंतन-मनन करने, सामूहिकता, मानवीय एवं पर्यावरणीय चेतना का बीज-वपन हो गया था और वे अपने परिवेश में हो रहे परिवर्तनों को देखने और अभिव्यक्त करने का रास्ता पा गये थे। बाद में उनकी रचनाएं देश की बाल पत्रिकाओं में भी छपने लगी। विद्यालय प्रांगण मे फैले बच्चों के चेहरों पर नन्हे-नन्हे सूरज उग आये थे और उनकी ऊष्मा से मैं एक मुट्ठी गरमाहट लेकर घर की ओर चल दिया।
— प्रमोद दीक्षित मलय