परिवर्तन
रेत पर बने कदमों के निशां
समुद्र की लहरों से मिटकर
अथाह जल राशि में समा जाते हैं।
फिर बन जाते हैं नये निशां और..
परिवर्तन का यह खेल
यूं ही निरंतर चलता जाता है।
ऐसे ही पेड़ के सूखे पत्ते गिरते हैं
और.. निकल आती है नई कोपलें।
समय की बहती धार में
उम्र दराज जीवन की निशानियां
मिटती जाती हैं और..
आत्मा मिल जाती है दिव्य प्रकाश में।
पुनः नवजीवन का संचार होकर
सृष्टि की यह परंपरा
निरंतर चलती जाती है।
इस बनने बिगड़ने के खेल के मध्य
केवल रह जाता है एक शब्द ‘परिवर्तन’!
जो चिरकाल से स्थाई है।
पूर्णतः मौलिक-ज्योत्स्ना पाॅल।