कविता

परिवर्तन

रेत पर बने कदमों के निशां
समुद्र की लहरों से मिटकर
अथाह जल राशि में समा जाते हैं।
फिर बन जाते हैं नये निशां और..
परिवर्तन का यह खेल
यूं ही निरंतर चलता जाता है।
ऐसे ही पेड़ के सूखे पत्ते गिरते हैं
और.. निकल आती है नई कोपलें।
समय की बहती धार में
उम्र दराज जीवन की निशानियां
मिटती जाती हैं और..
आत्मा मिल जाती है दिव्य प्रकाश में।
पुनः नवजीवन का संचार होकर
सृष्टि की यह परंपरा
निरंतर चलती जाती है।
इस बनने बिगड़ने के खेल के मध्य
केवल रह जाता है एक शब्द ‘परिवर्तन’!
जो चिरकाल से स्थाई है।

पूर्णतः मौलिक-ज्योत्स्ना पाॅल।

*ज्योत्स्ना पाॅल

भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त , बचपन से बंगला व हिन्दी साहित्य को पढ़ने में रूचि थी । शरत चन्द्र , बंकिमचंद्र, रविन्द्र नाथ टैगोर, विमल मित्र एवं कई अन्य साहित्यकारों को पढ़ते हुए बड़ी हुई । बाद में हिन्दी के प्रति रुचि जागृत हुई तो हिंदी साहित्य में शिक्षा पूरी की । सुभद्रा कुमारी चौहान, महादेवी वर्मा, रामधारी सिंह दिनकर एवं मैथिली शरण गुप्त , मुंशी प्रेमचन्द मेरे प्रिय साहित्यकार हैं । हरिशंकर परसाई, शरत जोशी मेरे प्रिय व्यंग्यकार हैं । मैं मूलतः बंगाली हूं पर वर्तमान में भोपाल मध्यप्रदेश निवासी हूं । हृदय से हिन्दुस्तानी कहलाना पसंद है । ईमेल- [email protected]