में हूँ किसान
मैं हूँ किसान
मैं धरा पुत्र मैं हूँ किसान
माँ के आँचल से लिपटा रह
पोशित करता सारा जाहान
मैं धरा पुत्र मैं हूँ किसान |
जग छुधा बुझाता खुद भूँखा
तपता जीवन अंगारों सा
ठिठुरन में श्वेद बहाता हूँ
मैं धरा पुत्र मैं हूँ किसान |
जग सजता और सँवरता जब
श्रम कर मैं थकता मिटता तब
संघर्ष भरा जीवन मेरा
मैं धरा पुत्र मैं हूँ किसान |
यह सोंच सुबह उठ जाता हूँ
कर्मो में रत हो जाता हूँ
होगा मेरा भी भाग्य उदय –
मैं धरा पुत्र मैं हूँ किसान |
पर सोई किस्मत जगी नहीं
धरती की सेवा फली नहीं
पर माँ को बिसराऊं कैसे
मैं धरा पुत्र मैं हूँ किसान |
अब भी शोशित जग है पोशित
देकर जीवन बेमौत मरूँ
कैसा बेबस हूँ दीन हीन
मैं धरा पुत्र मैं हूँ किसान |
हे भाग्य विधाताओं सुन लो
मेरी यह मर्माहत वाणी
अब दया दिखाओ कुछ हम पे
मैं धरा पुत्र मैं हूँ किसान |
©मंजूषा श्रीवास्तव’मृदुल’
लखनऊ ,उत्तरप्रदेष