लघुकथा – मृत्युभोज
रजुआ बीच जंगल में अपनी भेड़-बकरियों को टिटकारी देता हुआ चरा रहा था, कि तभी उसकी नजर सज्जन सिंह पर पड़ गयी | सज्जन सिंह को सभी गाँव वाले दादा कह कर बुलाते थे | स्वभाव से अच्छे थे इसीलिए औरत – मर्द, बूढे – बच्चे सभी बस दादा – दादा की रट लगाये रहते… |
पास जाकर रजुआ ने पूछा, “दादा आज अकेले जंगल में और इतनी दूर कैसे आ गये, किसी जड़ी – बूटी की जरूरत आन पड़ी थी क्या? मुझे बोल देते, मैं ले आता |”
दादा ने रजुआ को धीरे से पलट कर देखा और धीमी आवाज में बोले, “बेटा रजुआ तू! कलेऊ लाया है क्या? दो दिन से यहीं भूखा पड़ा हूँ, धक्के मारकर घर से निकाल दिया मुझे |”
रजुआ ने अपना खाना दादा की तरफ बडाते हुए कहा, “लो दादा खा लो, पर ये बताओ आपको घर से क्यों निकाल दिया | आपके पाँच बेटे हैं, पाँचों के तीन-तीन, चार-चार लड़के हैं, फिर उनके लड़के हैं, नाती-पोतों से भरा पूरा परिवार है | सबकी आर्थिक स्थिति भी बहुत अच्छी है | सबका अलग-अलग व्यवसाय है, फिर |”
“यही तो कारण है, बेटा रजुआ, सब अपने-अपने काम में व्यस्त हैं | मुझे परसों बुखार आ गया था, तो मैंने बड़े लड़के से कुछ रूपये दवा के लिए मांगे, उसने दुत्कार कर भगा दिया | जब उससे छोटे के पास गया तो उसने भी डांट दिया, इस तरह बारी – बारी से सबने स्पष्ट मना कर दिया | फिर मैंने सोच वहाँ रहना बेकार है, कोई किसी का नहीं इस दुखिया संसार में और मैं यहाँ मरने जंगल में चला आया |” दादा सज्जन सिंह ने रोते-बिलखते रजुआ को अपनी व्यथा सुना दी |
चार दिन बाद पता चला दादा इस दुनिया में नहीं रहे |
ठीक तैरह दिन बाद दादा सज्जन सिंह के पांचों लड़कों ने उनका मृत्युभोज (बृह्मभोज) बारह कुन्तल आटे का किया | माल-पुआ, खीर – सब्जी बनाई गई और आसपास के सभी गाँव वालों को भरपेट खाना खिलाया गया |
रजुआ सोच रहा था, जब दादा जिन्दा थे तो दवा के लिए दस-पांच रूपये नहीं थे इनके पास और आज दुनिया को दिखाने के लिए लाखों का मृत्युभोज आयोजित कर रहे हैं, ताकि दादा की आत्मा को शांति मिल सके, ढोंगी कहीं के… |
— मुकेश कुमार ऋषि वर्मा