कविता

फितरतें

फितरतें ही सब कहती है कुछ इंसान नहीं कहता है
ये बाईबल या गुरुग्रंथ का ज्ञान नहीं कहता है
यूं धर्मों के नाम पर हम खून के प्यासे हो जाएं
ये गीता हीं कहती ये कुरान नहीं कहता है
धर्मों के नाम पर हम खेलें क्यों खेल खूनी
बहनों को करते बेवा , मांओं की गोद सूनी
यूं मन को भर के रखें बदले की कामना से
लूटें किसी की ईज्जत प्रतिशोध भावना से
ये आध्यात्म नहीं कहता ये विज्ञान नहीं कहता है
क्यों मातम में डूबे दिन क्यों उदासी रात करते
हम देश के भविष्य को क्यों अनाथ करते
अपने ही भाई भाई में लड़कर झगड़कर
तोडे़ं हम देश अपना बेवकूफियों में पड़कर
ये मां भारती का गौरव और शान नहीं कहता है
सृष्टि हमारी एक है ,लहू सभी का लाल है
फिर भी कई विभेदों से जीना हुआ मुहाल है
मैं मुस्लिमों का हूं या हूं हिन्दू भाई का
मैं सिक्खों का हूं या हूं सिर्फ इसाई का
ये धरती नहीं कहती ये आसमान नहीं कहता है
टपके किसी के आंसू तो अपना रूमाल दें हम
इंसानियत की ऐसी जिंदा मिसाल दें हम
हम प्रेमभाव के गीत रचें समरसता की राग से
धर्म भेद का नाम मिटाएं अपने दिलोदिमाग से
जीवन को अपने जीने का अधिकार हर किसी को
छीनें किसी की खुशियां या मार दें किसी को
ये अल्लाह नहीं कहता ये भगवान नहीं कहता है ।

— विक्रम कुमार

विक्रम कुमार

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