कविता

माटी का दीप

लालटेन कहे ‘माटी के दीप’ से
बहुत छोटा है तेरा आकार,
कैसे हटेगा तेरी ज्योति से
अमावस का घनघोर अंधकार।

छोटी सी कुटिया में रहकर
बीत गया तेरा सारा जीवन,
बुझ जाती है क्षण भर में तू
चलता है जब थोड़ा सा पवन।

देख मैं तुझसे कितना बड़ा
करता हूं बड़े घर को रोशन,
जलता हूं देर रात तक मैं
बुझा नहीं सकता मुझको पवन।

निकला जब रात को चंद्रमा
मिट गया रात का अंधकार,
कहां लालटेन से चंद्रमा ने,
नहीं काम अब तेरा धरा पर।

तुम्हारे सामने बहुत छोटा हूं मैं
लालटेन बोला चांद को करके नमन,
जग का तमस हर लेते हो तुम
बड़े भाई तुम हो जग में महान।

दोनों की बातें सुन, कहा दीप ने
ना करो तुम स्वयं पर इतना गुमान,
ना मिले रोशनी सूर्य से चांद को
चूर चूर होगा तब चांद का अभिमान।

मैं छोटा सा माटी का दीप
लेता नहीं किसी से उधार,
कुटिया को रोशन करना काम मेरा
नहीं करता मैं किसी पर उपकार।

कुटिया तथा ऊंचे ऊंचे महलों में
दीपावली के रात को जलता हूं,
अमावस के घनघोर तमस को
तभी मैं बहुत दूर भगा पाता हूं।

मैं जलता हूं मंदिरों में जब
तब होती है ईश्वर की पूजा,
मैं सजता आरती की थाली में
मेरे बिन काम न आता दूजा।

मैं छोटा ही सही, बड़े भाई
नहीं है मुझे इस बात का दुख,
कुटिया को रोशन करके मैं
पाता हूं आनंद व अनंत सुख।

पूर्णतः मौलिक – ज्योत्सना पाॅल।

*ज्योत्स्ना पाॅल

भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त , बचपन से बंगला व हिन्दी साहित्य को पढ़ने में रूचि थी । शरत चन्द्र , बंकिमचंद्र, रविन्द्र नाथ टैगोर, विमल मित्र एवं कई अन्य साहित्यकारों को पढ़ते हुए बड़ी हुई । बाद में हिन्दी के प्रति रुचि जागृत हुई तो हिंदी साहित्य में शिक्षा पूरी की । सुभद्रा कुमारी चौहान, महादेवी वर्मा, रामधारी सिंह दिनकर एवं मैथिली शरण गुप्त , मुंशी प्रेमचन्द मेरे प्रिय साहित्यकार हैं । हरिशंकर परसाई, शरत जोशी मेरे प्रिय व्यंग्यकार हैं । मैं मूलतः बंगाली हूं पर वर्तमान में भोपाल मध्यप्रदेश निवासी हूं । हृदय से हिन्दुस्तानी कहलाना पसंद है । ईमेल- [email protected]