माटी का दीप
लालटेन कहे ‘माटी के दीप’ से
बहुत छोटा है तेरा आकार,
कैसे हटेगा तेरी ज्योति से
अमावस का घनघोर अंधकार।
छोटी सी कुटिया में रहकर
बीत गया तेरा सारा जीवन,
बुझ जाती है क्षण भर में तू
चलता है जब थोड़ा सा पवन।
देख मैं तुझसे कितना बड़ा
करता हूं बड़े घर को रोशन,
जलता हूं देर रात तक मैं
बुझा नहीं सकता मुझको पवन।
निकला जब रात को चंद्रमा
मिट गया रात का अंधकार,
कहां लालटेन से चंद्रमा ने,
नहीं काम अब तेरा धरा पर।
तुम्हारे सामने बहुत छोटा हूं मैं
लालटेन बोला चांद को करके नमन,
जग का तमस हर लेते हो तुम
बड़े भाई तुम हो जग में महान।
दोनों की बातें सुन, कहा दीप ने
ना करो तुम स्वयं पर इतना गुमान,
ना मिले रोशनी सूर्य से चांद को
चूर चूर होगा तब चांद का अभिमान।
मैं छोटा सा माटी का दीप
लेता नहीं किसी से उधार,
कुटिया को रोशन करना काम मेरा
नहीं करता मैं किसी पर उपकार।
कुटिया तथा ऊंचे ऊंचे महलों में
दीपावली के रात को जलता हूं,
अमावस के घनघोर तमस को
तभी मैं बहुत दूर भगा पाता हूं।
मैं जलता हूं मंदिरों में जब
तब होती है ईश्वर की पूजा,
मैं सजता आरती की थाली में
मेरे बिन काम न आता दूजा।
मैं छोटा ही सही, बड़े भाई
नहीं है मुझे इस बात का दुख,
कुटिया को रोशन करके मैं
पाता हूं आनंद व अनंत सुख।
पूर्णतः मौलिक – ज्योत्सना पाॅल।