कविता

कविता- दग्ध हृदय

तन ने जितनी सही यातना और यन्त्रणा मन पाया।
दोनों ने दिल को मथ -मथकर, क्रोध अग्नि को उपजाया।।

हृदय दाह जब चक्षु मार्ग से, बहकर बदन भिंगोता है।
अग्नि धधकती अन्त: बाहर, जग कहता है, रोता है।।

हृदय भूमि के सरस भाव, बन वाष्प रोम दहकाते हैं।
कुछ आँखों से आग उगलते, कुछ आँसू बन जाते हैं।।

आदत सी हो गई अग्नि की, अग्नि बीच सुख पाता हूँ।
जलता हूँ नित स्वयं और ख़्वाबों में उन्हें जलाता हूँ।।

किन्तु हृदय की प्रबल वेदना, लगातार बढ़ती जाती।
जख़्मों के चलचित्र बनाकर, पुन: दृश्य को दिखलाती।।

अरे गिरगिटों! छद्मवेश में, कितने व्यूह बनाओगे?
देख अकेले इस अनाथ को, मूल समेत मिटाओगे?

अवध पार्थ अभिमन्यु कृष्ण बन, आप समर जेता होगा।
तन – मन के रिसते घावों से, नाव स्वयं खेता होगा।।

*डॉ. अवधेश कुमार अवध

नाम- डॉ अवधेश कुमार ‘अवध’ पिता- स्व0 शिव कुमार सिंह जन्मतिथि- 15/01/1974 पता- ग्राम व पोस्ट : मैढ़ी जिला- चन्दौली (उ. प्र.) सम्पर्क नं. 919862744237 [email protected] शिक्षा- स्नातकोत्तर: हिन्दी, अर्थशास्त्र बी. टेक. सिविल इंजीनियरिंग, बी. एड. डिप्लोमा: पत्रकारिता, इलेक्ट्रीकल इंजीनियरिंग व्यवसाय- इंजीनियरिंग (मेघालय) प्रभारी- नारासणी साहित्य अकादमी, मेघालय सदस्य-पूर्वोत्तर हिन्दी साहित्य अकादमी प्रकाशन विवरण- विविध पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन नियमित काव्य स्तम्भ- मासिक पत्र ‘निष्ठा’ अभिरुचि- साहित्य पाठ व सृजन