कविता- दग्ध हृदय
तन ने जितनी सही यातना और यन्त्रणा मन पाया।
दोनों ने दिल को मथ -मथकर, क्रोध अग्नि को उपजाया।।
हृदय दाह जब चक्षु मार्ग से, बहकर बदन भिंगोता है।
अग्नि धधकती अन्त: बाहर, जग कहता है, रोता है।।
हृदय भूमि के सरस भाव, बन वाष्प रोम दहकाते हैं।
कुछ आँखों से आग उगलते, कुछ आँसू बन जाते हैं।।
आदत सी हो गई अग्नि की, अग्नि बीच सुख पाता हूँ।
जलता हूँ नित स्वयं और ख़्वाबों में उन्हें जलाता हूँ।।
किन्तु हृदय की प्रबल वेदना, लगातार बढ़ती जाती।
जख़्मों के चलचित्र बनाकर, पुन: दृश्य को दिखलाती।।
अरे गिरगिटों! छद्मवेश में, कितने व्यूह बनाओगे?
देख अकेले इस अनाथ को, मूल समेत मिटाओगे?
अवध पार्थ अभिमन्यु कृष्ण बन, आप समर जेता होगा।
तन – मन के रिसते घावों से, नाव स्वयं खेता होगा।।