यादों की बग़ावती पोटली
बहुत संज़ीदगी से
मैं चल रहा था
जीवन की उबड़ – खाबड़
पगडंडी पर
कुछ – कुछ अपने को भी
खल रहा था
यादों की पोटली
भारी हो गई थी
सम्हालना मुश्किल हो गया था
पूरी ताकत से दबाकर
तह लगाया था
किन्तु आज यादों को
बगावत करते हुए पाया था।
रोटी का टुकड़ा
लड़ रहा था नमक के लिए
जूता खोज रहा था रस्सी
पाँव में टिकने के लिए
पाकिट से झाँकता हुआ पँच टकिया
कुर्ते की बगावत का गवाह था
कमर रोकने में फेल थी
बिखरते पाजामें को
जूट के बस्ते से झाँकती स्लेट
जंघे पर अपनी हाज़िरी दर्ज कराती
खिचड़ी मिलने में
पल भर की देरी
सदी बनकर आती
किताबों में रखे मोरपंख
गुल्लक में रखे सीपी और लघु शंख
खाली हाथ के कारण
मेले में अकेले रहने की यादें
चिढ़ा रही हैं।
आज
मखमली सोफे पर
स्वादिष्ट व्यंजन खाकर
धनपशु बनने के बाद भी
नींद उचट जा रही है
शायद गलत रास्ते से
सही मुकाम पाने की
मृगतृष्णा
मेरी औकात से
मेरा परिचय करा रही है।
डॉ. अवधेश कुमार ‘अवध’