गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

है बहुत आजकल ये थकी ज़िंदगी।
जिंदगी की तरह न लगी जिंदगी।

शाख से टूट कर गिर न जाए कहीं,
है पके फल सी अब ये पकी ज़िंदगी।

बचपने से जवानी तो सोई रही,
अब बुढ़ापे में आकर जगी ज़िंदगी।

ना हमारी हुई, ना तुम्हारी हुई,
ना किसी और की है सगी ज़िंदगी।

सांस ही से चली, सांस ही से बढ़ी,
सांस से आख़िरी में ठगी ज़िंदगी।

‘जय’ तो ज़िंदा रहा दूसरों के लिए,
कब कहां उसकी अपनी रही ज़िंदगी।

जयकृष्ण चांडक ‘जय’

*जयकृष्ण चाँडक 'जय'

हरदा म. प्र. से