गज़ल
कभी फरहाद कभी मजनूं कभी रांझा बना डाला
तुम्हारे इश्क ने जानां मुझे क्या-क्या बना डाला
पिला कर खून अपना पाला जिसको उम्र भर मैंने
उस दिल को एक पल में तुमने अपना बना डाला
अपने आप में महफिल हुआ करता था कभी मैं
तुम्हारी याद ने मुझे भीड़ में तनहा बना डाला
सदा देती रही मंज़िल मगर मैं रुक नहीं पाया
सफर की जुस्तजू ने मुझको आवारा बना डाला
हो मौसम कोई भी हर वक्त रहती हैं लबालब ये
जुदाई ने तो मेरी आँखों को दरिया बना डाला
जो दिल में ही था उसको ढूँढने की रौ में इंसां ने
कहीं मंदिर कहीं मस्जिद कहीं गिरजा बना डाला
— भरत मल्होत्रा