सामाजिक

खून ,खानदान और विज्ञान

आज हम चाहे जितना विकास का डंका बजा दे, चाहे जितना भौतिकता की सुख का आनंद ले रहे हो पर असल में विकास तब जाकर सही मायने में पूर्ण होगी जब हम मानसिक रूप से विकसित होंगे ।हमारे मानसिक विकास को अवरूद्ध करने में हमारी रूढवादि परंपरा की भी बहुत अहम और नाकारात्मक भूमिका है।
अनेकों मुद्दों की बात न करके हम सिर्फ एक ज्वलंत मुद्दे पे आपका ध्यान आकृष्ट करना चाहूँगा और वो है ‘बेटियों का मौजूदा समाज में अस्तित्व’ आज भी देश के पढ़े लिखे बहुत सारे ऐसे परिवार है जो बेटियों को एक बोझ या पराया धन ही समझते है और बेटों को अपना मूलधन मानते हैं । ये गलत है । बेटियाँ शादी करके ससुराल जाती है तो वो पति का घर कहलाता है, तो कोई ये बताए कि आखिर बेटियों का अपना घर कौन सा है इस समाज में?
दूसरी एक सच्चाई, माता पिता की नजर में बेटियाँ पराई है फिर शादी करके ससुराल जाती है तो वो इस खानदान की नहीं कहलाती है पर उससे जन्में बच्चे इस खानदान के जरूर कहे जाते हैं । ये रूढवादि और तर्कहीन नियम समाज में सदियों से चली आ रही है।इस बेबुनियाद नियम को हमारा समाज अपना कर अपना और पराया को पारिभाषित कर डाला। यहाँ ये कुपोषित सोच ने विज्ञान को भी ठेंगा दिखा रहा है और कहता है कि हम विकास की ओर जा रहे हैं ।
खून के आधार पर हमारे खोखले समाज ने जो खानदान को परिभाषित किया है वो सरासर विज्ञान के नियम को ठेंगा दिखा रहा है। बच्चों के जन्म में माँ और बाप का सहयोग होता है, और ये मा और बाप दो परिवार से आते हैं, बच्चे में दौनो परिवार के वर्तमान और पूर्वजों का आनुवांशिक गुण मौजूद होते है । तो फिर जब बच्चे के पैदाईश में दौनो परिवार के आनुवांशिक गुण मौजूद है जो कि दौनो के खून से सलंगन है तो फिर खानदान के नाम पे बच्चे को बाप के ही परिवार से क्यों आंका जाता है? ये तो विज्ञान को ठेंगा दिखाने का काम है हमारे समाज के कुपोषित विचारों का।
अब एक और सच्चाई , दौनो परिवार में से किसी को गंभीर बिमारी की हालात में खून की जरूरत पडती है तो कहीं से भी खून लेने में हिचकिचाहट नहीं होती जैसे अगर पति या पति के परिवार के किसी सदस्य को खून की जरूरत है और वो खून अगर लडकी के परिवार के किसी सदस्य से मिल जाए तो स्वीकार होगा ।क्यों? ये तो लडकी के परिवार वालों का खून है।
तो मेरे कहने का तात्पर्य ये है कि ये समाज में व्याप्त बेबुनियाद , अतार्किक और अवैज्ञानिक सोच जिसका कोई आधार नहीं है जबतक इसे न बदलेंगे तबतक बेटियों के साथ न्याय नहीं कर पाऐंगे हम। हर बेटी के माँ बाप को खून के रिश्तों के गलत परिभाषा जिसे हमारे रूढवादि और तर्कहीन परंपरा ने जन्म दिया है उसे विज्ञान के आईने में लाना होगा तब जाकर
हम अपने बेटियों को इज्जत, सम्मान और समाज में उनके अस्तित्व को दे पाऐंगे।
— मृदुल शरण