ग़ज़ल
मेरे दर पर वो आया नहीं कभी,
आकर गले से लगाया नहीं कभी।
राह तकते तकते आँखें थक गयी,
चेहरा उसने दिखाया नहीं कभी।
गया था करके वादा लौट आऊँगा,
वो वादा उसने निभाया नहीं कभी।
किसको सुनाती हाल ऐ दिल अपना,
औरों को अपना बनाया नहीं कभी।
लिख लिख चिट्ठी रखती रहती थी,
उसने पता अपना बताया नहीं कभी।
उसके दिए दर्द के सहारे जीती रही,
बेवफाई का ख्याल आया नहीं कभी।
यादों और निशानियों को सहेजे रखा,
इसीलिये घर को सजाया नहीं कभी।
सोई नहीं सुलक्षणा रातों को इंतजार में,
उसने दरवाजा खटखटाया नहीं कभी।
— डॉ सुलक्षणा अहलावत