कविता

उर्मिला की व्यथा

अपने भ्राता राम जी के संग लक्ष्मण चौदह वर्ष के लिए वनवास गए। अपने नवविवाहिता पत्नी उर्मिला को वह संग लेकर नहीं जा पाए।
लक्ष्मण के विरह में उर्मिला रात दिन कैसे जली, उस व्यथा को मैंने अपने शब्दों में ढालने का प्रयास किया है।
सब को समर्पित है मेरी रचना…

तुम गए वनवास पिया
तड़पू मैं यहां बिरहन,
कहीं ना मन लागे मेरा
चैन ना आवे दिन रैन।

तकते तकते राह तुम्हारी
थक गई मोरी अखियां,
मनवा ना धीर धरे मोरा
कैसे तुम बिन काटूं रतियां।

ना भाए कोई सिंगार मोहे
ना गहने और ना बिंदिया,
आंखों में बसी मूरत तुम्हारी
मन तुम ही बसे मन बसिया।

ना कजरा सोहे, गजरा भाए
मैं तो जोगिन तुम्हारी भई रे,
बिसरा दीन्हो मोहे पिया तुम
तुम बिन बावरिया मैं हुई रे।

चित्त को कैसे समझाऊं मैं
अब ना चित्त धीरे धरे,
देखूं तुम्हारी सुंदर मूरतिया
करेजा को मेरे चैन पड़े।

अपने पिया संग खेले होली
मिलकर सब मेरी सखियां,
झर झर दिन रैन नीर बहाए
मेरी प्यासी दो अखियां।

कासे कहूं हिया की पीर मैं
किसे दिखाऊं मनकी अगन,
लागे ना कहीं मनवा मोरा
तुझसे पिया लागी जो लगन।

रात दिन जले जियरा मोरा
जैसे जले भीगी लकड़ियाँ,
तन मोरा जलके कोयला भयो
मन भयो जलके राख सांवरिया।

मैं अभागन रह गई महल
ना जा पाई पिया तुम संग वन,
जो चितचोर नहीं संग मेरे
का करूं मैं लेके महल, धन।

एक दिन लागे एक बरस सम
कैसे बिताऊं मैं चौदह बरस,
पल भर ना चैन आवे मुझे
प्यासी नैनो को दे जाओ दरस।

तुझ संग करके प्रेम मैं हारी
जग में प्रेम ना करियो कोई,
प्रेम ना करती तुझसे बैरी
जो जानती प्रेम करे दुख होई।

पूर्णतः मौलिक-ज्योत्स्ना पाॅल।

*ज्योत्स्ना पाॅल

भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त , बचपन से बंगला व हिन्दी साहित्य को पढ़ने में रूचि थी । शरत चन्द्र , बंकिमचंद्र, रविन्द्र नाथ टैगोर, विमल मित्र एवं कई अन्य साहित्यकारों को पढ़ते हुए बड़ी हुई । बाद में हिन्दी के प्रति रुचि जागृत हुई तो हिंदी साहित्य में शिक्षा पूरी की । सुभद्रा कुमारी चौहान, महादेवी वर्मा, रामधारी सिंह दिनकर एवं मैथिली शरण गुप्त , मुंशी प्रेमचन्द मेरे प्रिय साहित्यकार हैं । हरिशंकर परसाई, शरत जोशी मेरे प्रिय व्यंग्यकार हैं । मैं मूलतः बंगाली हूं पर वर्तमान में भोपाल मध्यप्रदेश निवासी हूं । हृदय से हिन्दुस्तानी कहलाना पसंद है । ईमेल- [email protected]