संबोधन
खत लिए बैठी नायिका
संबोधन में उलझी
क्या हो ऐसा संबोधन
जो प्रेम से सराबोर कर
नायक को डुबो जाए
संबोधन में छिपा
प्रिय प्यार अपनत्व
करुणा का लहराता सागर
हृदय का उदगार तुम्हारा।
है नाम एक ही
अलग अलग रूप में
पुकारते हैं सब
तब होती ज्ञात
रिश्तों की गहराई
हृदय की अंतरंगता
प्रेम की पीड़ा
मन की सच्चाई।
सूखा ठूंठ सा पेड़
कहकर निकल गया कोई
किसी ने कहा
वहां एक पुराना बरगद है
और तुम कह गए
उस बरगद दादा ने दी है
जिंदगी भर सुखद छांव
है यह संबोधन का जादू।
नाम में कुछ नहीं रखा
तुम्हारे पुकारने का ढंग ही
नाम को सार्थक बना
कोमलता का अहसास देता है
पत्र का संबोधन ही
पूरे खत की मिठास देता है।
निशा नंदिनी भारतीय
तिनसुकिया, असम