मुक्तक/दोहा

ऋतुराज

पुष्प सुसज्जित पूर्ण यौवना बाग
वन वन टेसू खिले लगाए आग।

इतराती प्रकृति सोलह श्रृंगार कर
मोहित हो प्रेम रस बरसाए अंबर।

पुष्प पुष्प पर डोले प्यासे मधुकर
प्रेम गीत गाए मोहित हो भ्रमर।

ले उड़े सुगंध चुराकर शीतल बयार
भर उर असीम अथाह प्यार भंडार।

इत उत डोले तितलियां इतरा कर
आह्लादित आज परागकण चुराकर।

गुलाब डहलिया मुख पर है मुस्कान
ऋतुराज का पाकर प्रेम आलिंगन।

प्रेमातुर मोर लुभाए मोरनी नृत्य कर
घन रस बरसाए अप्रतिम दृश्य देखकर।

प्रकृति अभिसारिका आतुर पिया मिलन
कर सोलह श्रृंगार प्रतीक्षित है तन मन।

चहुं ओर प्रेमासक्त हुआ वातावरण
धरा पर जब हुआ ऋतुराज आगमन।

पूर्णतः मौलिक-ज्योत्स्ना पाॅल।

*ज्योत्स्ना पाॅल

भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त , बचपन से बंगला व हिन्दी साहित्य को पढ़ने में रूचि थी । शरत चन्द्र , बंकिमचंद्र, रविन्द्र नाथ टैगोर, विमल मित्र एवं कई अन्य साहित्यकारों को पढ़ते हुए बड़ी हुई । बाद में हिन्दी के प्रति रुचि जागृत हुई तो हिंदी साहित्य में शिक्षा पूरी की । सुभद्रा कुमारी चौहान, महादेवी वर्मा, रामधारी सिंह दिनकर एवं मैथिली शरण गुप्त , मुंशी प्रेमचन्द मेरे प्रिय साहित्यकार हैं । हरिशंकर परसाई, शरत जोशी मेरे प्रिय व्यंग्यकार हैं । मैं मूलतः बंगाली हूं पर वर्तमान में भोपाल मध्यप्रदेश निवासी हूं । हृदय से हिन्दुस्तानी कहलाना पसंद है । ईमेल- [email protected]