गज़ल
ख्वाब आँखों में जितने पाले हैं
सब के सब टूट जाने वाले हैं
जो पसंद हो वही नहीं मिलता
खेल कुदरत के भी निराले हैं
हमें तुम क्या मिटाओगे, हमने
सीने में तूफान पाले हैं
कोई आवाज़ न उठाएगा
यहां सबकी ज़ुबां पे ताले हैं
कहीं खाने की भी फुर्सत न मिले
कहीं गिनती के ही निवाले हैं
— भरत मल्होत्रा