कविता

औरत

थक गई हूँ खुद से ,
जाने क्यों टूटने लगी हूँ।
लगता है जैसे
खुद को ही छलने लगी हूँ ।
जंजीरों को कब मैंने
बाँध लिया पैरों में
स्वतंत्रता की चाह
जाने क्यों झुलसने लगी हूँ
क्या एक औरत का कोई
वजूद नहीं होता?
क्या शादी के बाद
एक औरत किसी की जागीर
बन जाती है ।
सच्चाई से जिंदगी की
घबराने लगी हूँ ।
आसमान छूने की ताक़त
बेबसी में ढलने लगी है ।
सपना एक ख्वाब का सजाने
में अनगिनत झिड़कियां
खाने लगी हूँ ।
हसरतों को दबाकर
खुश रहने का सलीका
औरों से छिपाने लगी हूँ
हाँ क्या कहा तुमने
मैं आजाद हूँ ?
क्यों सुनाते हो मनगढंत
कहानियां प्रेम भरी ।
एक औरत न कभी
आजाद थी ,न हो सकती
वो तो बस कठपुतली है
पुरुष के इशारों की ।
ये क्या हुआ है मुझे
क्यों फिर से तुम्हें
मनाने लगी हूँ ।
चलो जी लेती हूँ
फिर से तुम्हारे सजाए हुए
सुंदर सपनों में ।
मर चुकी है अब
जीने की सारी तृष्णाएं ।
झूठी कहानियों में
खुद को आजाद
पाने लगी हूँ ।
मर गयी न जाने कितनी
जीने की चाहतें सजाए हुए ।
मैं सिर्फ एक खिलौना हूँ ।
हर गली में तोड़ी
जाने लगी हूँ ।

— वर्षा वार्ष्णेय अलीगढ़

*वर्षा वार्ष्णेय

पति का नाम –श्री गणेश कुमार वार्ष्णेय शिक्षा –ग्रेजुएशन {साहित्यिक अंग्रेजी ,सामान्य अंग्रेजी ,अर्थशास्त्र ,मनोविज्ञान } पता –संगम बिहार कॉलोनी ,गली न .3 नगला तिकोना रोड अलीगढ़{उत्तर प्रदेश} फ़ोन न .. 8868881051, 8439939877 अन्य – समाचार पत्र और किताबों में सामाजिक कुरीतियों और ज्वलंत विषयों पर काव्य सृजन और लेख , पूर्व में अध्यापन कार्य, वर्तमान में स्वतंत्र रूप से लेखन यही है जिंदगी, कविता संग्रह की लेखिका नारी गौरव सम्मान से सम्मानित पुष्पगंधा काव्य संकलन के लिए रचनाकार के लिए सम्मानित {भारत की प्रतिभाशाली हिंदी कवयित्रियाँ }साझा संकलन पुष्पगंधा काव्य संकलन साझा संकलन संदल सुगंध साझा संकलन Pride of women award -2017 Indian trailblezer women Award 2017