नम्रता
रोज की तरह आज भी मैं सैर पर गई थी, बस समय कुछ भिन्न था. वैसे मैं सुबह 8 बजे जाती हूं, जब सूरज को उदय हुए 2 घंटे हो चुके होते हैं, आज सायंकाल 6 बजे गई थी, जब सूरज के ढलने में 2 घंटे शेष थे. सुबह भी धूप तेज होती है, शाम को भी तेज थी, फिर भी सूरज के व्यवहार में जमीन-आसमान का अंतर!
”यह कैसे हो गया?” मन में एक प्रश्न उठा. अब भला सूरज दादा के मन की बात को मैं क्या समझूं?
”सूरज दादा, प्रणाम.” हमने सीधे सूरज से ही बात करनी शुरु कर दी.
”आयुष्मान, बुद्धिमान, सेवामान,” सूरज दादा ने शुभ आशीर्वाद देते हुए पूछा. ”मन में कोई शंका है क्या पुत्री?” शायद वे मेरे असमंजस को जान गए थे.
”दादा जी, शंका तो नहीं कह सकते, हां जिज्ञासा अवश्य है.”
”कहो पुत्री, निश्चिंत होकर कहो.” सूरज दादा ने आश्वस्त करते हुए कहा.
”दादा जी, सुबह तो मुझे आपके प्रकाश में प्रखरता का पुंज महसूस होता है, इस समय आप नम्रता के पुतले बने हुए लग रहे हैं. मेरा अनुमान सही है क्या?” मैंने अपनी जिज्ञासा रखी.
”बिलकुल सही है पुत्री.” सूरज दादा ने कहा.
”वो क्यों? कोई खास कारण?”
”सुबह मुझे प्रखरता की सख्त जरूरत होती है. उस समय मुझे प्रजा के पालन-पोषण का कार्य करना होता है, रात के जीव-जंतुओं से निस्तार दिलवाना होता है, खेतों को पोषक तत्त्व देने होते हैं, स्वच्छता की सार-संभाल करनी होती है, गृहिणियों के धुले कपड़ों, अनाज, मसालों, पापड़ों को सुखाना होता है. इसके लिए यौवन के निखार की जरूरत होती है, उस समय मेरे यौवन का समय होता है, तदनुसार प्रखरता का पुंज होने में ही सबका भला दिखता है.” सूरज दादा ने अपना राज खोला.”
”दादा, आप बात तो ठीक कह रहे हैं. हम मानवों के साथ भी ऐसा ही होता है. यौवन में शक्ति का पुंज भी होता है, अतः बच्चों के सृजन और पालन-पोषण के लिए शक्ति का संचार होता है, लेकिन मुझे लगता है, अहंकार भी अपना रौब दिखाता है.” मैंने हिचकते हुए कहा.
”यही तो मुझमें और मानवों में अंतर है. समय के साथ मैं अहंकार को छोड़ता चला जाता हूं, यौवन के ढलते ही अपने अनुभव से नम्रता का चोला धारण कर लेता हूं. उस समय जैसे मेरे तेज में कमी आ जाती है, मानवों को भी कई संदेशे आ चुके होते हैं. आंखों की रोशनी कम होती जाती है, कानों की क्षमता मंद हो जाती है, दांत झरने लगते हैं, घुटने चिटकने लगते हैं, लेकिन अहंकार का ग्राफ बढ़ता ही चला जाता है. वह सोचने लगता है- मैंने बच्चों के लिए बहुत कुछ किया, अब बच्चे मेरे लिए सब कुछ करें, जब कि मैं किसी से कोई अपेक्षा नहीं रखता. देता-ही-देता हूं. जिसे तुम दिन कहते हो, उस समय धरती के उस भाग को तेज-ताप-रोशनी देता हूं, फिर तुम्हारी रात में बिना किसी भेदभाव के धरती के बाकी बचे हुए भाग को सब कुछ अर्पण करने चला जाता हूं.” छोटी-सी बदरी की ओट में जाते हुए सूरज दादा की खरी-खरी बातें मेरे दिल में उतरती जा रही थीं.
”यही नम्रता और निःस्पृहता मुझे धरती के दूसरे भाग को प्रज्वलित करने के लिए पुनः शक्ति प्रदान करती है. यही नम्रता मुझे पूजनीय एवं सम्माननीय बनाती है” बदली को सहलाकर दादा ने पुनः कहना शुरु किया.
अनुभवी सूरज दादा की नम्रता का राज मुझे समझ में आ गया था.
वैलंटाइन डे पर लिखी यह वार्तालाप बहुत अछि लगी लीला बहन .
वार्धक्य में इंसान की अपेक्षाएं बहुत अधिक हो जाती हैं जबकि युवा पीढ़ी के सामने परिवार की सार-संभाल और नौकरी-व्यवसाय से तालमेल बैठाना ही मुश्किल हो जाता है. ऐसे में थोड़ी-सी भी नम्रता और युवा पीढ़ी की मुश्किलों का अहसास हो, तो सामंजस्य में आई मुश्किल आसान हो जाती है.