मृत्यु का शव
बड़ी देर से पार्क के एक कोने में बैठे उस जोड़े को देखकर उनकी आँखें चमक रही थी। कभी रोम-रोम पुलकित होता था सपना के प्यार से।
चॉकलेट हो या चने चबेने कितने प्यार और मनुहार से वह उन्हें खिलाती थी।
अब पछतावे के सिवा कुछ नहीं बचा था ,काश वह भी सपना को भी कभी जिद से कभी प्यार से खाने-पहनने कहा होता ।
अभी तो दस दिन भी नहीं बीते हैं उसे गुजरे पर ऐसा लगता है मानों वर्षों पहले से एकाकीपन झेल रहे हों।
शुन्य में निहारते हुए आँखें गीली हो रही थी , अचानक किसी ने झकझोर कर जगाया।
“ये क्या बत्तमीजी है ; जरा अपनी उम्र का तो ख्याल करें । हमें घर परिवार की जिम्मेदारियों के बीच एक-दुसरे के लिये वक्त नहीं मिल पाता है।प्रेम का महीना चल रहा है ,हम दोनों पति-पत्नी जरा सी देर पार्क में बैठकर जरा सी बातें क्या करने लगे आप तो छिछोरापन की परकाष्ठा पार करने लगे।”
“बेटे माफ करना तुमने कुछ कहा !”
“हाँ आप क्यों हमें लगातार घूर रहे हैं?”
“बेटे आपकी उम्र अभी काफी कम है ! क्या आपने जिंदा लाश देखा है ?उसकी भी आँखें पथराई सी रहती हैं। सोचने समझने से परे बस शुन्य में समाहित।”