कहानी- जांबाज थापा
भारतीय सेना और भारतीय पुलिस विभाग के गौरवशाली इतिहास के बारे में चर्चा करने के लिए शब्द कम पड़ जाते हैं। भारतीय सेना का इतिहास विशिष्ट, उच्च स्तर का और गौरवशाली रहा है। भारतीय सेना की शौर्य गाथाएं किसी भी भारतीय का सीना गर्व से भर देती है। भारतीय सैनिकों के शौर्य, साहस, पराक्रम और बलिदान की गाथाएं सदियों से गाई जाती रही हैं। यह गाथाएं इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में दर्ज है। शौर्य और साहस के अलावा भारतीय सेना सैन्य धर्म और चरित्रगत आचरण के लिए भी जानी जाती है।
नार्थ ईस्ट में अरुणाचल बहुत ही हरा भरा व प्राकृतिक सुंदरता से भरपूर प्रदेश है। मैं असम रहती हूँ लेकिन हमारा चाय बगान अरुणाचल में होने के कारण आना जाना लगा रहता है। नामसई से आगे मुदई में हमारा चाय बगान है। मुदई बारी टी स्टेट। तिनसुकिया से मुदई ढाई घंटे का सफर होता है। वहां काफी मात्रा में चाय के बगान हैं। जिनके ज्यादातर मालिक तिनसुकिया और उसके आस-पास के स्थानों में रहते हैं।
पहले जब कभी कोई वहां जाता था। तो पूरी सतर्कता बरतनी पड़ती थी क्योंकि वहां भी समय समय पर आतंक वादी अपना आतंक फैलाते रहते थे। बीच-बीच में आर्मी भी वहां आकर वर्चस्व दिखाती और रक्षा करती थी। मुदई में हमारे एक मित्र हैं महेश थापा जो कि मुदई के पुलिस विभाग में इंस्पेक्टर हैं। भरा पूरा परिवार है उनका। पत्नी सुलेखा थापा मुदई कॉलेज में प्रवक्ता हैं। दो बेटी और एक बेटा है। बेटा बड़ा है वह पूना के प्रतिष्ठित कॉलेज में पढ़ता है और बेटियां अभी छोटी है वे दोनों मुदई के वी.के.वी स्कूल में आठवीं और दसवीं में पढ़ती हैं। तीनों बच्चे पढ़ने में बहुत अच्छे हैं और अपने माता-पिता के समान ही संस्कारी हैं। महेश थापा बहुत ही ईमानदार और कर्तव्य निष्ठ अधिकारी हैं। पत्नी सुलेखा भी उनके कदम से कदम मिलाकर चलती हैं।
मुदई जिले के मीरगांव टी स्टेट के मालिक नरेश सहारिया से आतंकवादियों ने दस लाख रूपए की डिमांड की थी। एक चिट्ठी मैनेजर के पास पहुंचायी गयी थी। मालिक ने उस चिट्ठी पर बहुत अधिक ध्यान नहीं दिया। जिसका नतीजा यह हुआ कि वे मैनेजर को आधी रात के समय सोता हुआ उठा कर ले गए थे और मालिक नरेश सहारिया के पास सुबह के चार बजे फोन आता है कि अपने मैनेजर और परिवार की सलामती चाहते हो तो
एक सप्ताह के अंदर पैसा नदी पार के जंगल में पहुंचा दो। अंत में चकमा भाषा में गाली देते हुए कहा कि अंजाम तो तू जानता ही है। अब तो चारों तरफ़ हड़कम मच गया था।
मैनेजर की उम्र लगभग 35-40 के बीच की होगी। छोटे-छोटे दो बच्चे पत्नी और उसके माता-पिता सब एक साथ ही रहते थे।
मैनेजर प्रदीप बोहरा के घर तो मानों मातम छा गया था। माता-पिता व पत्नी का रो-रोकर बुरा हाल हो रहा था। उसके पिता स्वयं उनके पास जाकर पैसा देकर बेटे को सही सलामत लाना चाहते थे। पुलिस में रिपोर्ट लिखवाई गई थी। लेकिन कुछ हासिल न हुआ। सात दिन बीतने वाले थे। एक एक दिन हवा के समान उड़ रहा था। मैनेजर प्रदीप का कहीं कोई अता-पता न था। दो माह पूर्व ही एक और चाय बगान के मालिक की डिमांड पूरी न करने पर हत्या कर दी गई थी। इसलिए सभी लोग बहुत डरे हुए थे। किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या करें? मालिक पैसे देने के लिए तैयार था पर पुलिस इंकार कर रही थी। पुलिस के डर से कोई कुछ नहीं कर रहा था। सभी लोग पुलिस को बुरा-भला बोल रहे थे। पुलिस तो बस अपनी रोटियाँ सेंकनी जानती है। आम लोगों के जान की इन्हें कोई परवाह नहीं है। यह सब एक ही थैली के चट्टे बट्टे हैं। यह सब बातें इंस्पेक्टर थापा के कानों में भी जा रही थीं। लेकिन उन्होंने किसी से कुछ नहीं कहा। शांत बैठे रहे।ऐसे माहौल में जाबांज इंस्पेक्टर थापा ने अपनी बुद्धि और हिम्मत से काम लिया। उन्होंने एक योजना बनाई। उन्होंने नरेश सहारिया से कहा- हमें किसी भी तरह प्रदीप की रक्षा करना होगा। अधिक देर होने पर वे आतंकवादी प्रदीप को भी मार देंगे। इसलिए तुम पैसों का इंतजाम करो और तुम्हारे पास जिस नम्बर से फोन आया था। उस नम्बर पर फोन लगाकर पूछो कि पैसा कहाँ किस समय लेकर आना है। मालिक नरेश, प्रदीप को बचाना चाहता था। उसने जल्दी से पैसों का इंतजाम किया और फोन लगाकर पूछा कि पैसे कहाँ पर देना है। तो उन लोगों ने कहा- तुम बिना किसी को कुछ बताये नदी के पास वाले जंगल में अकेले शाम के पांच बजे आओगे। अगर किसी को इसकी भनक तक लगी तो तुम दोनों अपने परिवार से हाथ धो लोगे।
इंस्पेक्टर थापा के बहुत पूछने पर भी मालिक नरेश ने कुछ नहीं बताया और उनके बताये समय पर जंगल की तरफ जाने के लिए तैयार हो गया।
इधर इंस्पेक्टर थापा ने नरेश का फोन टेप कर लिया था। इसलिए ठीक उसी समय पर थापा ने दूसरे रास्ते से नदी पार के जंगल में जाने की सब तैयारी कर ली थी।
वे साधारण से असमिया किसान की वेश-भूषा में अपने हथियार को छुपा कर चल दिए। हाथ में जंगली पेड़ काटने वाला दांव था।
सिर पर गमछा बांध रखा था। हाथ-पैर और मुंह मिट्टी से सने हुए थे। पैरों फटे से जूते थे। वे देखने में (बुरबक) मूर्ख गरीब लग रहे थे। थापा इस रूप में वहां पहले से ही पहुंच कर
जंगली लकड़ियां काटने लगे। कुछ लोगों ने उन्हें देख कर भी अनदेखा कर दिया क्योंकि उन्हें लगा कि यह कोई गरीब मनुष्य है। जो अपने घर में खाना बनाने के लिए लकड़ियां काट रहा है। थापा के इस कार्य की जानकारी उसकी पत्नी सुलेखा को छोड़कर किसी को नहीं थी। एक युवा लड़के ने असमिया में पूछा- (की कोरिसे) यहां क्या कर रहा है तो थापा ने बड़े दीन भाव से असमिया में कहा- खाना बनाने के लिए लकड़ी ले रहा हूँ। थोड़ी ही देर में बगान का मालिक नरेश सहारिया भी पैसा लेकर वहां पहुंच गया था। तब तक थापा अंदर के जंगल में चला गया था और वहां से सारा दृश्य देख रहा था। उन्हें लगा कि वह आदमी लकड़ी लेकर चला गया है। मालिक नरेश को देखते ही लगभग तीस साल के एक युवा ने गाली देते हुए कहा-( ईमान देर लगायिसे) इतनी देर कर दी। तुझे नहीं मालूम हम क्या करते हैं। एक आदमी नरेश के माथे पर बंदूक तान कर खड़ा हो गया। नरेश ने कहा- पूरा पैसा है गिन लो और प्रदीप को छोड़ दो। नरेश ने पैसे का बैग उस व्यक्ति को दे दिया। बैग लेकर कुछ साथी पैसे गिनने लगे। दो आदमी रस्सी से बंधे हुए मैनेजर प्रदीप को लेकर सामने आ गए। प्रदीप ने मालिक को देखा तो उसकी जान में जान आई। नरेश ने कहा हम दोनों यहां से चुपचाप चले जायेंगे। किसी से कुछ न कहेंगे। तभी उनके बॉस ने कहा- इन दोनों का यहीं काम तमाम कर दो। यह शब्द सुनते ही थापा ने अंधाधुंध फायरिंग शुरू कर दी। आतंकवादियों के सात में से पांच आदमी वहीं ढेर हो गए। प्रदीप और नरेश मौका देखकर पास के पेड़ों के पीछे छिप गए। थापा के भी बहुत गोलियां लगीं थीं। उसके घाव से खून रिस रहा था। सांस लेने में तकलीफ हो रही थी। इसके बावजूद भी वे दो आदमी जो बच गए थे। थापा ने आधा किलोमीटर तक उनका पीछा किया और लगातार फायरिंग करता रहा। गोली एक आदमी के पैर में लगी और दूसरे आदमी की पीठ में। उसके बाद दोनों को पकड़ लिया गया। कुछ दिनों बाद जिसकी पीठ में गोली लगी थी वह भी मर गया था। जो पैर की गोली वाला बचा था। वह ही असली बॉस था। उससे पूछताछ करके जेल में डाल दिया गया था। नरेश और प्रदीप अपने पैसे लेकर राजी खुशी वापस आ गए थे। थापा के भी काफी जगह गोलियां लगी थी। लगभग दो माह तक वे अस्पताल में रहे थे। यह थी थापा के देश प्रेम और जिंदादिली की कहानी। उसके बाद से जो लोग पुलिस वालों को बुरा-भला कहते थे। वे सब उन्हें देखते ही गर्व से सलामी देने लगे।
आज न जाने कितने ही थापा इस देश की रक्षा में जान हथेली पर लिए खड़े हैं। जिनके कारण हम अपने आप को सुरक्षित महसूस करते हैं। इस घटना को लगभग दस- बारह साल हो गए हैं। थापा का रिटायरमेंट हो चुका है। बेटा अवधेश आर्मी में इंस्पेक्टर के पद पर पिता के समान ही जिंदादिली से देश की सेवा कर रहा है। बेटियां भी आर्मी में जाने की तैयारी में लगी हैं। लेकिन आज भी किसी आतंकवादी को वहां के जंगलों में आने की हिम्मत नहीं होती है। ऐसे जांबाज सैनिकों को मेरा कोटि कोटि नमन ।
— निशा नंदिनी भारतीय
तिनसुकिया, असम