ग़मे आशिक़ी ने सँभलना सिखाया
ग़मे आशिकी ने सँभलना सिखाया
समन्दर में गहरे उतरना सिखाया
अकेले थे पहले बहुत खुश थे लेकिन
तेरी आरज़ू ने तड़पना सिखाया
बड़ी धूल थी बारहा रुख़ पे मेरे
तेरी इक नज़र ने सँवरना सिखाया
कभी मैंने ख़ारों की परवा नहीं की
गुलों ने मुझे भी महकना सिखाया
लगी आग दिल में तो खामोश रहकर
घटाओं ने मुझको बरसना सिखाया
भरोसा मुझे अपने ईमान पर है
मुझे जुल्म से जिसने लड़ना सिखाया
वो तुम हो मुझे जिसने हिम्मत अता की
सितारों के आगे निकलना सिखाया
— डा डी एम मिश्र
बहुत सुंदर ग़ज़ल !
उत्साहवर्धन के लिए बहुत-बहुत आभार आदरणीय।