कविता

विजय गाना गाओ

विजय गान गाओ रे सब मिल
बाग में पुष्प हंसे रे खिल खिल
आयो रे मां का लाड़ला अपने घर
स्वागत में बुंदे बरसाए अंबर।

पुलकित हो नाच उठी दिशा दिशा
अद्भुत रोमांचक आह्लादित निशा
खुशी का रहा नहीं कोई ओर छोर
मादकता भरी आई सुहानी भोर।

कोयल ने छेड़ी अपन मीठी तान
भंवरें गाए बागों में गुनगुन गान
स्वादिष्ट हो गई मधु कहे मधुकर
होकर आनंदित डोले इधर-उधर।

आज ना माने मन कोई बंधन
आओ रे सखी नाचे हो के मगन
थिरके पैर ढोलक की थाप पर
गूंजे विजय स्वर चारों ओर मुखर।

विजयी मुस्कान खिली मां के मुख पर
आया शुरवीर सकुशल घर लौट कर
दिया अपने अदम्य साहस का परिचय
लेकर मन में अटल अडिग निश्चय।

पूर्णतः मौलिक-ज्योत्स्ना पाॅल।

*ज्योत्स्ना पाॅल

भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त , बचपन से बंगला व हिन्दी साहित्य को पढ़ने में रूचि थी । शरत चन्द्र , बंकिमचंद्र, रविन्द्र नाथ टैगोर, विमल मित्र एवं कई अन्य साहित्यकारों को पढ़ते हुए बड़ी हुई । बाद में हिन्दी के प्रति रुचि जागृत हुई तो हिंदी साहित्य में शिक्षा पूरी की । सुभद्रा कुमारी चौहान, महादेवी वर्मा, रामधारी सिंह दिनकर एवं मैथिली शरण गुप्त , मुंशी प्रेमचन्द मेरे प्रिय साहित्यकार हैं । हरिशंकर परसाई, शरत जोशी मेरे प्रिय व्यंग्यकार हैं । मैं मूलतः बंगाली हूं पर वर्तमान में भोपाल मध्यप्रदेश निवासी हूं । हृदय से हिन्दुस्तानी कहलाना पसंद है । ईमेल- [email protected]