लघुकथा

डैश (-) का निशान ! एक डरावना सच

शहर के एक आलीशान होटल में सजी महफ़िल , मद्धम मद्धम बज रहीं जगजीत सिंह की ग़ज़लें, हल्की नीली रोशनी में जलती शाम , चहुँ ओर बिखरी बेले के ईत्र की चिरायँध ख़ुशबू और लोगों के हाथों में मद भरे पैमाने ! शाम आज शराब के ख़यालों में डूबती जा रही थी ।

वहीं मौजूद भावेश उसी अंजुमन का हिस्सा था, और ज़िंदगी की हर उलझन को शराब में घोल कर पी जाना चाहता था, कहीं खो जाना चाहता था कि अचानक फ़ोन की घंटी ने उसे फिर से जागृत कर दिया ।

हेलो! हेलो! हाँ शीतल ; मैं बस निकल ही रहा था, कहते हुए फ़ोन काट दिया ।

पता ही नहीं चला घड़ी ने कब रात के 12:30 बजा दिए थे, “आज समय ऐसे भाग रहा था कि मानो कोई उसका पीछा कर रहा हो”

उफ़! मुझे तो घर जल्दी लौटना था , छोटी बहन की किताबें ख़रीदनी थी, और माँ के लिए दवा भी । मानो जैसे भावेश किसी नींद से जगा हो,
आनन फ़ानन में , बिना किसी से कुछ कहे बाहर निकल चुका था ।

कृष्ण पक्ष एकादशी (31 Dec) की अंधेरी और सर्द रात आज कुछ अलग सी थी । आज उसने बारिश को भी अपने आग़ोश में ले रखा था !
“मानो उस ‘रात’ के साथ किसी ने बेवफ़ाई की हो और उसकी तड़प, पीड़ाएँ आँसू बनकर बरस जाने को आतुर हों”

भावेश जैसे ही आगे बढ़ा देखते ही देखते पानी की तेज़ धारों ने उसे सराबोर कर दिया । किंतु अपराध बोध भावेश चलते रहने का फ़ैसला कर चुका था । बारिश की तेज़ धारें पेड़ की शाखाओं का सीना चीरती हुयी,सारी पत्तियों का क़त्ल कर रही थीं । सड़कें , गाड़ियाँ सब धुँधले नज़र आ रहे थे।

ठिठुरन भरी रात बारिश के साथ रज़ा कर क़हर ढा रही थी, मोटर साइकल की लाइट किसी बुझते दिए के जैसे जल रही थी , पानी की तेज़ बौछारें उसके चेहरे पर तमाचे जड़ रही थी , हर तरफ़ अँधेरा ही अँधेरा छाने लगा था । ये रात भावेश के लिए जैसे क़यामत की रात थी।
काँपते हाँथों और सीने में अचानक उठे दर्द की वजह से आगे बढ़ पाना मुश्किल हो चुका था कि उसे दूर एक टूटे घर सा नज़र आया और जा पहुँचा।

एक पुराना सुनसान खंडहर नुमा बड़ा सा कमरा, दीवार पे जमी हुयी तक़रीबन काली हो चुकी काई, छत पे उग आयी घास की लटकती पत्तियाँ, भावेश के लिए कुछ भी समझ पाना मुश्किल था ।

पानी से लथपथ, और गला देने वाली ठंड से ठिठुरता भावेश अपने सीने में उमड़े दर्द के कारण दीवार के सहारे बैठ गया।
तड़ित की तेज़ गर्जनाएँ रूह कँपा देने वाली थीं, किंतु उसकी हर चमक में उसे कुछ दिखाई देता था और उसकी नज़र वहीं थम जाती थी।

वो जगह एक क़ब्रिस्तान थी जिस पर बनी एक क़ब्र पर लिखा था 1977-2009.

भावेश की नज़र उस डैश(-) के निशान पर ठहर गयी, उस क़ब्र पर उसे अपना प्रतिबिम्ब नज़र आने लगा, उसकी ज़िंदगी के हर पहलू ,उसका खोया हुआ अतीत अनेक रंगों में ढलकर दिखाई देने लगा।

बचपन की यादें, वो पुराना घर , पिता , दोस्त,और उसका पहला प्यार आरती भी, बड़ी भोली सी थी वो, कहा करती थी भावेश प्यार व्यार कुछ नही होता, ये सिर्फ़ ख़याल होते हैं । फिर न जाने कैसे प्यार कर बैठी थी।

कहते हैं ना कि “ये ज़िंदगी देती तो बहुत कुछ है लेकिन तय वक़्त के बाद ….सब वापस”. आज वो सब उससे छिन चुका था ।

बारिश तेज़ होती जा रही थी , भावेश का दर्द और बढ़ने लगा था, कांपते हांथो को अपने सीने पर रखकर वो एक टक, बिना पलकें झपकाए उस डैश के निशान को देख रहा था, उसका चेहरा सुर्ख़ पड़ गया था, होंठ सूख रहे थे ! उसके आनन से निकली ‘आह’ बारिश के शोरों में दफ़्न होती जा रही थी, कि अचानक उसकी सांसें थम गयी । जैसे क़ब्र के चबूतरे पर बना डैश का निशान उसके माथे पर गड़ गया हो , उसकी हर उलझने, दर्द , विपदाएँ , पूरी ज़िंदगी उस डैश में समा गयी थीं ।

“कुछ जवाबों के लिए सवाल नही बने” बस ! क़लम को चाहिए कि थम जाय , कई बार मौन के संवाद शब्दों पर भारी पड़ते हैं !

नीरज सचान

नीरज सचान

Asstt Engineer BHEL Jhansi. Mo.: 9200012777 email [email protected]