कविता

कविता

ग़मों में लिपटी धुंध हूँ , जैसे बिखरे जज़्बात हूँ । रूह की बेआवाज़ चीख़ सा, बेसहर एक रात हूँ मैं।। बेफ़िक्री में जी गयी, एक अधूरी जींद हूँ । समा जाते जिसमें हज़ार दर्द, वो शराब की इक बूँद हूँ मैं।। जीवन की इस झंझावत में एक टूटा पलाश हूँ । वीरानों में भटकता, […]

लघुकथा

डैश (-) का निशान ! एक डरावना सच

शहर के एक आलीशान होटल में सजी महफ़िल , मद्धम मद्धम बज रहीं जगजीत सिंह की ग़ज़लें, हल्की नीली रोशनी में जलती शाम , चहुँ ओर बिखरी बेले के ईत्र की चिरायँध ख़ुशबू और लोगों के हाथों में मद भरे पैमाने ! शाम आज शराब के ख़यालों में डूबती जा रही थी । वहीं मौजूद भावेश […]

कविता

जैसे ज़िंदा लाश हूँ मैं !

ग़मों में लिपटी धुंध हूँ , जैसे बिखरे जज़्बात हूँ । रूह की बेआवाज़ चीख़ सा, बेसहर एक रात हूँ मैं।। बेफ़िक्री में जी गयी, एक अधूरी जींद हूँ । समा जाते जिसमें हज़ार दर्द, वो शराब की इक बूँद हूँ मैं।। जीवन की इस झंझावत में एक टूटा पलाश हूँ । वीरानों में भटकता, […]

गीत/नवगीत

हर तो सोना ! हर रोज़ जग जाना !

हर रोज़ सोना, हर रोज़ जाग जाना दिन दोपहरी सिर्फ़ रोटी को भागना । है पता कि ज़िंदगी में मयस्सर कुछ भी नही, बहुत ही दुष्कर है छद्म मोह को त्याग पाना ।। खो जाता है नूर , एक दिन तारीकियों में, शाखें भी छोड़ जाती है , साथ सूखे सज़र का । जितनी अनजान […]

कविता

मौसम है अनुरक्त सा…

मौसम है अनुरक्त सा, काली घटाएँ छायी हैं । बारिशें शायद यहाँ , फिर से लौट आयी हैं।। मिटा चुका था मैं, जिन गुज़िश्ता यादों को। आज बन के बूँदे , मेरी आँखों में उतर आयी हैं।। नीरज सचान

मुक्तक/दोहा

ख़ुद का साथी सिर्फ़ खुदा !

हज़ार रिश्तों में बँधा आदमी भी , हर दिल से जुदा होता है । लाख पिरो ले वो धागे मोह के, ख़ुद का साथी सिर्फ़ खुदा होता है।।

कविता

बरखा और बसंत !

पीले पीले फूल खिले, था चारों ओर बसंत । जैसे पीताम्बर ओढ़, घूम रहा हो संत !! किंतु बरखा और तूफ़ानो ने मिल, छीन लिए प्राण उपवन के । हो जैसे कोई साथी छूटा, बिखर गए हों रंग जीवन के ।। नीरज सचान ।

मुक्तक/दोहा

शराब छोड़ दी मैंने !

अपनी ज़िंदगी में कुछ दिनों की मियाद जोड़ दी मैंने । आज उनकी ख़ातिर शराब छोड़ दी मैंने । । जिन्हें साथी सुकून का मान कर, पीता गया ज़हर । उन कमज़र्फ शराबों से, यारी तोड़ दी मैंने । । आज उनकी ख़ातिर शराब छोड़ दी मैंने !

गीत/नवगीत

एक क़लम जो …

एक क़लम जो हरी धूप से , घास चुराया करती थी ! सतरंगी शब्दों को बुनकर, मेघधनुष में ढल जाया करती थी ! दिन ढले पपीहे की टेर बनकर, मधु गीत सुनाया करती थी । या कभी बिछुड़ी प्रेयसी का, प्रेम पात्र बन जाया करती थी !! एक क़लम….

मुक्तक/दोहा

वो प्यार जिसे…

वो प्यार जिसे कभी ‘गीत’ कहता था , वो प्यार जिसे आज शब्दों में पिरोता हूँ ! वो प्यार जिसे कभी ख़्वाबों में संजोता था, वो प्यार जिसे आज शराबों में डुबोता हूँ !!