मैं नहीं कहती ,
तुम गुड़ की डली बन जाओ ।
मैंने सदा चाह ,
गुड़ की हल्की सी मिठास को।
वक्त बेवक्त मुझे,
कांटों की शैया पर न सुलाओ।
मिश्रित रंग से ,
जीवन की खुशियाँ दे जाओ ।
मैं नहीं चाहती ,
चिर सुख का सदा आनंद हो।
विनती सदा मेरी ,
दुख को वहन करने की शक्ति दो।
है नहीं चाह मेरी ,
मिले सदैव सर्वत्र संबल मुझको।
केवल प्रार्थना इतनी ,
स्व: वहन कर सकूँ विपदाओं को।
रहूँ सदैव मैं निर्भय ,
है नहीं प्रभु यह स्वार्थ कामना ।
सुख दुःख में सम होकर
जीत सकूँ निस्वार्थ हर भय को ।
— निशा नंदिनी