ग़ज़ल
खुद से ही रुठे हम खुद से मान ही गए
हालात अपने दिलके हम जान ही गए
तुमको हो मुबारक रकीबों की चाहते
हम तो तेरी चाहत पर कुर्बान ही गए
मुद्दत से इस कलम में जज्बात कैद हैं
इस स्याही ए समंदर के तूफान ही गए
न मय मिली न साकी न रंगीनियां मिली
होकर तेरी महफिल से बदनाम ही गए
पलकों की नमी ओढ़कर उम्मीद सो गई
सानो से मेरे अश्को के निशान भी गए
देखा तुम्हें जो गैर की महफिल से निकलते
बदली निगाह तेरी हम पहचान ही गए
गर मरते नहीं तो और क्या करते बताइए
मुझपे लगा के इस कदर इलज़ाम ही गए
वो क्या गए हैं जानिब दिल को तोड़कर
टूटा जो दिल तो दिल के अरमान भी गए
— पावनी जानिब, सीतापुर